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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 15, अंक - 4, 2003, 33 - 40 नागवंश जैन इतिहास की एक अलक्षित वंश परंपरा - सूरजमल बोबरा* सारांश नागवंश या उरगवंश का उदय ऋषभदेव की शासन-व्यवस्था के परिणाम स्वरूप हआ। पुराणों में वर्णित तक्षशिला व पातालपुरी के नाग अन्य कोई नहीं वरन सिंधु घाटी व नर्मदा घाटी क्षेत्र के नागवंशी थे जो महामारी व जलप्लावन के कारण सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित होने के लिये बाध्य हो गये थे। कालान्तर में जनमजेय के 'नागयज्ञ की विनाशलीला के बाद भी नागवंशी बचे रहे और उनके हाथों हस्तिनापुर का अंत हुआ। नागवंशी सुसंस्कृत मानव थे जो विद्याधर तो नहीं थे किन्तु कई विद्याओं को जानते थे। ई.पू. 8 वीं शती तक (शिशुनाग वंश के रूप में) इनका प्रबल प्रभाव हम उत्तर भारत में पाते हैं। हस्तिनापुर, पवैया, बनारस व मगध इनके प्रमुख गढ़ थे। नागवंशी मूलत: जैन परम्परा के होने के कारण जैनेतर संदर्भो द्वारा अलक्षित रखे गये। जैन इतिहास को समझने के लिये इस वंश के इतिहास को समझना आवश्यक नागवंश का भारत के प्राचीन इतिहास में बहुत बड़ा स्थान है। नागजाति अथवा नाग जनसमूह व उनके राज्य परिवारों का समस्त भारतीय इतिहास की धाराओं पर अमिट प्रभाव पड़ा है। भारतीय जनमानस में नाग संस्कृति के अस्तित्व, उनका लोक परंपरा पर प्रभाव, कथा-कहानी व जन श्रुतियों में उनका वर्णन, कला के सभी आयामों में उनके रूपाकारों के प्रति लगाव एक आधारभूत संरचना का प्रमाण है। यह आधारभूत संरचना है एक सुसंस्कृत मानव समाज की जो भारत भूमि पर अपने कार्य कलापों से आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक उपलब्धियों द्वारा विश्व की सभी सभ्यताओं के लिए आकर्षण का कारण रही। अति प्राचीन भारतीय इतिहास की धारायें जैन व वैष्णव / हिन्दू पुराणों में सुरक्षित हैं। यद्यपि पुराण कर्ताओं ने उन्हें रूपकों में बांधकर धार्मिक आधार दिया है किन्तु यदि सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाय तो वास्तव में उन रूपकों में इतिहास छिपा है। उदाहरण के लिए जनमजेय के नागयज्ञ पर विचार करें। वास्तव में घटनाक्रम इस प्रकार है - महाभारत के उपरान्त उत्तर भारत में वैदिक क्षत्रियों के बारह राज्य थे। उनमें सर्व प्रधान राज्य कुरू देश में हस्तिनापुर का पुरू-कुरू अथवा पाडव वंशियों का था। अर्जुन का पौत्र परीक्षित उनका अधीश्वर था। किन्तु उसके समय में ही वैदिक आर्यों की बढ़ती हई शक्ति के सम्मुख लंबे समय से दबी रही नाग आदि-द्रविड़ जातियाँ जागृत हो गई थीं। पश्चिमोत्तर प्रदेश की तक्षशिला और सिन्धुमुख की पाताल पुरी के नाग विशेष प्रबल हो उठे। नवीन उत्साह से जागृत, विशेषकर तक्षशिला के नागों ने कुरू राज्य के उपर भीषण आक्रमण शुरू कर दिये। उन के साथ युद्ध में ही परीक्षित की मृत्य हई। उसके बेटे जनमजेय का भी सारा जीवन नागों के साथ युद्ध करने में ही बीता। उसने उनका भरसक संहार भी किया किन्तु उनके बढ़ते हुए वेग को रोकने में वह भी असमर्थ रहा और हस्तिनापुर राज्य उत्तरोत्तर क्षीण होता चला गया। जनमजेय की इसी नाग संहारक गतिविधि को वेदानुयायी पुराणों ने "नाग यज्ञ" के रूप में प्रकाशमान करने का प्रयत्न किया है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जनमजेय के पश्चात् शतानीक, * निदेशक - ज्ञानोदय फाउन्डेशन, 9/2, स्नेहलतागंज, इन्दौर-452005 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
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