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प्रयास कर रहा है। ऐसे वातावरण में हम भी अपने उपभोग के स्तर को ऊँचा उठाने के लिये आय अर्जन के नये-नये तरीके खोजने में लग गये हैं। अब कार्य के घंटों की कोई सीमा नहीं है। 10- 12 - 15 घंटे कोई सीमा नहीं। सभी तरफ कमाने-कमाने का बोल बाला है। इस कुचक्र में कुछ लोग सफल हो जाते हैं और कुछ उच्च आय की मरीचिका में फँस जाते हैं। जो कुछ भी सफल हुऐ हैं उन्होंने अन्य की आय पर अतिक्रमण किया होगा? कैसा विकास? सब अधिक से अधिक हथियाना चाहते हैं। ऐसे में उसके पास संस्कृति के बारे में सोचने या धर्म का आचरण करने का समय ही कहाँ रह जाता है। इस बाजार मूलक विकास ने व्यक्ति को मात्र अर्थव्यवस्था का उपभोक्ता बनाकर रख दिया है। ऐसे में कैसे हम मानव के भावनात्मक तथा आध्यात्मिक विकास की कल्पना कर सकते हैं। आज न हम प्राकृतिक सम्पदा के उचित विदोहन की सोचते हैं और न ही पर्यावरण के रख - रखाव की चिन्ता करते हैं। जीव मात्र के प्रति हमारी करूणा कहाँ मर गई है? आज अधिक दूध प्राप्त करने के लिये गायों को लेक्टोजन का इन्जेक्शन लगाते हैं जिससे उसकी आयु को भी दाँव पर लगा देते हैं। अभी तो वैज्ञानिकों ने यह भी पता लगा लिया है कि कुछ कृषक अपनी आय बढ़ाने के लिये इस प्रकार के इन्जेक्शन हरी सब्जियों में भी लगाने लगे हैं। कहते हैं इससे सब्जी का आकार जल्दी बढ़ता है। ये केमिकल सब्जी के माध्यम से हमारे शरीर में जा रहा है। कभी नहीं सोचते कि उसका क्या दुष्परिणाम होगा? कैसा विकृत विकास? पर्यावरण, प्रदूषण, मिलावट आदि के कई उदाहरण हम आये दिन समाचार पत्रों में देखते हैं। लगता है बाजारवाद तथा बढ़ते हए मुद्रास्फीति के दबाव में हम विकास का अर्थ ही भूल गये हैं। बाजारवाद तथा आर्थिक संकट
वास्तव में बाजारवाद में आर्थिक विकास की दर को बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा ने विश्व अर्थ व्यवस्था को कई संकटों में फँसा दिया है। कभी एशियाई देशों की अर्थ व्यवस्था को तो कभी इण्डोनेशिया तथा अर्जेंटीना की अर्थ व्यवस्था को धराशायी होते देखा है। संकट तथा संघर्ष ने भीमकाय अमेरिकन अर्थ व्यवस्था को भी नहीं छोड़ा है। पिछले लगातार तीन वर्षों से वह भी आर्थिक मन्दी से ग्रस्त है। बेरोजगारी की बढ़ती दर से वह भी चिन्तित है। अन्तर्राष्ट्रीय आंतकवाद से वह भी नहीं बच सका। सम्पन्न, शक्तिशाली तथा शोषण से बचने के लिये कई राष्ट्रों को आर्थिक संघ बनाने को मजबूर किया है। यह नया आर्थिक दर्शन किस प्रकार की राजनैतिक तथा सामाजिक अर्थ व्यवस्था को जन्म देगा इसकी कल्पना अभी करना कठिन है। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था भी अप्रभावी हो गई है। आर्थिक उथल-पुथल, अनिश्चितता, भय जनित विकास को कैसे आदर्श विकास कहा जा सकता है। विकास का सही माप
वास्तव में आज विचारक विकास की सही परिभाषा खोजने में लगे हुये हैं। प्रति व्यक्ति आय बढ़ जाने अथवा उपभोग के लिये ज्यादा वस्तुओं को प्राप्त कर लेने की क्षमता ही विकास नहीं है। पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों ने कई खाड़ी देशों की क्रय शक्ति तो बढ़ा दी लेकिन यह उनकी मानवीय क्षमता को बढ़ाने में सक्षम नहीं हो सकी। इस प्रकार की अवस्था को विकास कैसे कहा जा सकता है? अत: अब लोग विकास को मानवीय क्षमताओं में वृद्धि के रूप में देख रहे हैं। इस रूप में विकास का अर्थ शिक्षा, स्वास्थ्य तथा क्रय शक्ति में विस्तार से हो। इसीलिये अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के विकास का आकलन मानवीय पूंजी अर्थात मानवीय क्षमताओं के रूप में कर रहे हैं। इस पर थोड़ा और चिन्तन करें तो पायेंगे की यह मानवीय क्षमता न केवल वर्तमान के लिये बल्कि भविष्य के सन्दर्भ में भी होना चाहिये। आगे के वर्षों में भी निरन्तर जारी
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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