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________________ धर्म और सम्प्रदाय इन प्राचीन पांडुलिपियों में हमारी संस्कृति तथा धर्म की जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार धर्म कभी भी नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक ही हो सकता है। यह जाति, समाज अथवा राष्ट्र मूलक भी नहीं हो सकता है। कोई भी धर्म किसी जाति विशेष अथवा राष्ट्र के उत्थान के लिये नहीं बना है। वह तो सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण ही क्यों, समस्त जीव तथा पर्यावरण के विकास के लिये बना है। अत: किसी जाति, समाज तथा राष्ट्र विशेष के विकास को धर्म से जोड़ना गलत है। धर्म का लक्ष्य मानव कल्याण है और उसके अधीन अलग-अलग सम्प्रदाय हो सकते हैं। सभी सम्प्रदायों का लक्ष्य एक ही है अत: ये सभी धर्म समत हैं तथा एक ही धर्म के अधीन हैं। इन सम्प्रदायों में विभिन्नता स्वाभाविक है क्योंकि ये जाति विशेष अथवा समाज विशेष की आवश्यकता और परिस्थितियों के अनुकूल बनाये गये हैं। लेकिन फिर भी इनमें विभिन्नता के बावजूद भी ये विरोधाभासी नहीं हैं क्योंकि सभी एक ही धर्म के अन्तर्गत हैं। अत: अलग-अलग सम्प्रदाय होना मेरे विचार से अस्वाभाविक नहीं है क्योंकि सभी एक ही धर्म के अन्तर्गत कार्य करते हैं। अत: इनके प्रति सभी का सम्मान, स्नेह तथा प्रेम होना चाहिये। वास्तव में सम्प्रदाय एक प्रकार से मार्ग है। एक ही मंजिल पर पहुँचने के लिये जिस प्रकार अलग - अलग मार्ग हो सकते हैं ठीक उसी प्रकार से मोक्ष मार्ग की प्राप्ति के लिये अलग-अलग सम्प्रदाय बन सकते हैं। हो सकता है मेरा मार्ग आपके घर के सामने से गुजरे। केवल मार्ग की स्थिति के कारण ही यह अच्छा अथवा बुरा नहीं हो सकता है। तकलीफ जब होने लगती है जब मुझे मेरे घर के पास से गुजरने वाले मुझे अच्छे नहीं लगे। हमारी इसी प्रवृत्ति के कारण विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होने लगती है। हमें अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ बताने की बजाय दूसरे सम्प्रदाय के प्रति प्रेम, स्नेह तथा सम्मान भाव प्रकट करना चाहिये। यही हमारी संस्कृति है इसीलिये यह देश कई संस्कृतियों का संगम स्थल बना हुआ है। आज इन विराट संस्कृतियों के संरक्षण की आवश्यकता है। इन्हीं संस्कृतियों में मानव के भौतिक जीवन तथा आध्यात्मिक दशा के विकास के मार्ग तथा तरीके विद्यमान है। आज इनको समझने, खोजने तथा अंगीकार करने की आवश्यकता है। सामाजिक समस्यायें और संस्कृति कुछ लोग हमारी सांस्कृतिक विरासत पर संदेह करने लगे है। भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा धन कमाने के अनैतिक तरीकों की व्यापकता को कमजोर संस्कृति का कारण मानने लगते हैं। उनका मानना है कि गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, नारी शोषण आदि से भरमार इस राष्ट्र की संस्कृति कैसे महान हो सकती है? संस्कृति से इस प्रकार के निष्कर्ष निकालना सरासर गलत तथा भ्रामक है। संस्कृति स्थान, जाति तथा राष्ट्र शून्य होती है। किसी राष्ट्र अथवा जाति की उन्नति अथवा अवनति को सांस्कृतिक परिवेश से जोड़ना उचित नहीं है। हमारे यहाँ लोग किसी भी राष्ट्र की तुलना में कम नैतिक नहीं हैं। आज भी हमारे यहाँ कई आदर्शों और श्रेष्ठों को देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है। सामाजिक बुराईयों का कारण राजनैतिक और आर्थिक नीति में देखना चाहिये। बाज़ारवाद तथा उपभोक्ता वास्तव में तीव्र औद्योगीकरण तथा पश्चिम के बढ़ते बाजारवाद ने सब को अधिक भौतिकवादी बना दिया है। आज बाज़ार उपभोक्ता वस्तुओं से भरे पड़े हैं। विक्रेता किसी भी तरह आकर्षक योजना अथवा उपहार देकर अपनी वस्तु बेचना चाहता है। और उपभोक्ता भी वस्तुओं के प्रति लालायित होकर उसे प्राप्त करना चाहता है। कई बार तो वह अपनी क्षमता से अधिक प्राप्त कर लेता है और फिर ऋण जाल में फँस जाता है। 'क्रेडिट कार्ड' के माध्यम से भी उपभोक्ता को बाजार 'उधारी के जाल' में फँसाने का भरसक 72 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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