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सेठ हर्षचन्द्र और उसकी पत्नी के अनन्तव्रत उद्यापन पर भट्टारक गुणचन्द्र द्वारा आदिनाथ चैत्यालय में रची 'अनन्तजिनव्रत पूजा', कुम्भनगर के बड़गूजर राजकुमार पद्मासिंह अपरनाम शिवाभिराम द्वारा पहले संस्कृत में 'चन्द्रप्रभ पुराण' की तथा तदनन्तर 1582 ई. में दिविजनगर दुर्ग (सम्भवतया देवगढ़) के जिनालय में 'षट्चतुर्थ - वर्तमान- जिनार्चन' काव्य की रचना पाण्डे जिनदास (1585 ई.) का 'जम्बूचरित्र', 'ज्ञानसूर्योदय', "जोगीरासा' और फुटकर पद, कल्याणदेव (1586 ई.) की 'देवराज बच्छराज चौपई', मालदेवसूरि (1595 ई.) की 'पुरन्दरकुमार चौपई', सन् 1602 ई. में आमेर महाराज मानसिंह के महामात्य साह नानू की प्रेरणा से मुनि ज्ञान कीर्ति द्वारा संस्कृत काव्य 'यशोधर चरित्र' की रचना तथा उदयराज जती (1603 ई.) के राजनीति के दोहे आदि अकबर के राज्यकाल की देन हैं।
इन्दौर के निकट रामपुरा-भानपुरा क्षेत्र में मुगल बादशाह की ओर से नियुक्त शासक दुर्गभान के समय में 1559 ई. में कमलापुर (भानपुरा से 7 मील दूर) में संघपति डूंगर ने सुन्दर 'महावीर चैत्यालय' बनवाया था, जो "सास-बहू का मंदिर' भी कहलाता था। सन् 1591 ई. में रणथम्मौर दुर्ग में वहाँ पर मुगल बादशाह द्वारा नियुक्त शासक जगन्नाथ के मंत्री अग्रवाल जैन रवीमसी (तेमसिंह) ने एक भव्य जिनालय बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। उसी वर्ष निमाड़ (वर्तमान मध्यप्रदेश के अन्तर्गत) में सुराणावंशी संघपति साह माणिक ने रत्नाकरसूरि से बिम्ब प्रतिष्ठा कराई थी। सन् 1600 ई. में उपर्युक्त कमलापुर में भट्टारक पद्मसागरसूरि ने 'आदिनाथ बिम्ब प्रतिष्ठा की।
जैन इतिहास में अकबर का उल्लेखनीय स्थान इसी कारण है कि किसी भी जैनेत्तर सम्राट से जैन धर्म, जैन गुरूओं और जैन जनता को उस युग में जो उदार सहिष्णुता, संरक्षण, पोषण और मान प्राप्त हो सकता था वह उससे प्राप्त हुआ। यहाँ तक कहा जाता है कि भावदेवसरि के शिष्य शीलदेव से प्रभावित होकर अकबर ने 1577 ई. के लगभग एक जिन मंदिर के स्थान पर बनायी गई मस्जिद तुड़वाकर फिर से जिन मंदिर बनवाने की आज्ञा दे दी थी। . टिप्पणी - विशद जानकारी हेतु इतिहास-मनीषी डॉ. ज्योति प्रसाद जैन की कृतियां -
'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि' तथा 'प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ और कविवर बनारसीदास का 'अर्द्ध कथानक द्रष्टव्य हैं।
प्राप्त : 10.06.02
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अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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