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गुरुओं के प्रति भक्ति प्रदर्शित की थी, दान-पुण्य के कार्यों में वह सदा अग्रसर रहता
था।'
अकबर के मित्र एवं प्रमुख अमात्य अबुलफजल की 'आइने अकबरी' में अकबर की उक्तियां भी दी हुई हैं जो उसकी मनोवृत्ति की परिचायक हैं। वह कहा करता था कि 'यह उचित नहीं है कि मनुष्य अपने उदर को पशुओं की कब्र बनावे। बाजपक्षी के लिये मांस के अतिरिक्त कोई अन्य भोजन न होने पर भी उसे मांस भक्षण का दण्ड अल्पायु के रूप में मिलता तब मनुष्यों को, जिनका स्वाभाविक भोजन मांस नहीं है, इस अपराध का क्या दण्ड मिलेगा ? कसाई, बहेलिये आदि जीव हिंसा करने वाले जब नगर से बाहर रहते हैं तो मांसाहारियों को नगर के भीतर रहने का क्या अधिकार है ? मेरे लिये यह कितने सुख की बात होती कि यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि सब मांसाहारी केवल उसे खाकर सन्तुष्ट हो जाते और अन्य जीवों की हिंसा न करते । जीव हिंसा को रोकना अत्यन्त आवश्यक है इसीलिये मैंने स्वयं मांस खाना छोड़ दिया।'
उपर्युक्त के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना तो अत्युक्ति होगी कि अकबर बादशाह जैन धर्मानुयायी और पूर्णतया शाकाहारी हो गया था, किन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि वह सर्वधर्म समभावी महान सम्राट जैन गुरुओं से भी प्रभावित रहा और उसने जीव हिंसा और मांसाहार को त्याज्य माना था।
विद्वानों का आदर करने वाले विद्यारसिक अकबर बादशाह के राज्यकाल में उसके आश्रय में तथा अन्यथा विपुल साहित्य सृजन हुआ था। अबुलफजल ने 'अकबरनामा' और 'आइने - अकबरी' का प्रणयन किया। 'आइने अकबरी' में जैन धर्मानुयायियों और जैन धर्म का विवरण भी संकलित है। इस ग्रन्थ की रचना में उसने जैन विद्वानों का भी सहयोग लिया बताया जाता है। बंगाल आदि के नरेशों की वंशावली उसने उन्हीं की सहायता से संकलित की बताई जाती है। अलबदायुनी और निजामुद्दीन ने इतिहास ग्रन्थ लिखे और फैजी ने सूफी कविताएं रचीं। अब्दुर्रहीमखानरवाजा (रहीम) के लोकप्रिय दोहे और बीरबल के चुटकुले अकबर के दरबार की ही देन है। कहते हैं अकबर स्वयं भी कविता करता था और उसने 'महाभारत' व अन्य प्राचीन भारतीय ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत में अनुवाद कराया था। कृष्णभक्त महाकवि सूरदास के पद, अष्टछाप के कवियों की भक्तिपरक रचनाएं और रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास का सुप्रसिद्ध 'रामचरित मानस' एवं अन्य कृतियां उसी काल की हैं। नरहरि, गंगा प्रभृति अन्य अनेक कवि भी अकबर के राज्यकाल में हुए । अध्यात्मरसिक कविवर बनारसीदास का जन्म भी उसके राज्यकाल में 1586 ई. में हो चुका था। उनके आत्मचरित्र 'अर्द्ध कथानक' से विदित होता है कि संवत् 1662 (1605 ई.) में अकबर के निधन का समाचार सुनकर उन्हें इतना आघात लगा था कि घर पर सीढ़ी पर बैठे हुए लुढक गये और उनका माथा फूट गया था।
जैन साहित्यकार भी अकबर के राज्यकाल में भारती का, विशेषकर हिन्दी साहित्य का भंडार भरने में किसी से पीछे नहीं रहे। पूर्व पंक्तियों में उल्लिखित कृतियों के अतिरिक्त कर्मचन्द्र की 'मृगावती चौपई', पाण्डे रूपचन्द्र का 'परमार्थी दोहाशतक' एवं 'गीत परमार्थी' पाण्डे राजमल्ल की 'पञ्चाध्यायी', 'लाटीसंहिता', 'अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड' और आचार्य कुन्दकुन् के 'समयसार' पर 'बालाबोधनी टीका', भट्टारक सोमकीर्ति का 'यशोधररास', ब्रहमरायमल्ल (1559 ई.) के 'हनुमन्तचरित्र', 'सीताचरित्र' एवं 'भविष्यदत्तचरित्र', विशाल कीर्ति (1563 ई.) का 'रोहिणीव्रतरास', सुमतिकीर्ति (1568 ई.) का 'धर्मपरीक्षारास', विजयदेवसूरि ( 1576 ई.) का 'सीलरासा', 1576 ई. में बाग्वर (बागड़) देश के शाकावारपुर (सागवाड़ा) के हूमड़वंशी
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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