SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की खाड़ी में मछली पकड़ने पर प्रतिबन्ध लगाया गया और दूसरे के द्वारा आषाढ़ी अष्टान्हिका में पशुवध का निषेध किया गया। सूरिजी के साथ उनके शिष्य मानसिंह, विद्याहर्ष, परमानन्द और समयसुन्दर भी पधारे थे। बादशाह के परामर्शानुसार सूरिजी ने अपने शिष्य मानसिंह को 'जिनसिंहसूरि' नाम देकर उन्हें अपना उत्तराधिकार और आचार्य पद प्रदान किया था तथा यह पट्टबन्धोत्सव अकबर की सहमति से कर्मचन्द्र बच्छावत ने समारोहपूर्वक मनाया था। पट्टन के पार्श्वनाथ मंदिर में अंकित वृहत् संस्कृत शिलालेख में जिनचन्द्रसूरि विषयक यह सब प्रसंग वर्णित हैं। मुनि पद्मसुन्दर भी बादशाह से सम्मानित हुए थे और उन्होंने 'अकबरशाही श्रृंगारदर्पण' ग्रन्थ की रचना की थी। सन् 1594 ई. में ग्वालियर निवासी कवि परिमल ने आगरा में रहकर अपने 'श्रीपाल चरित्र' की रचना की जिसमें अकबर की प्रशंसा, उसके द्वारा गोरक्षा के कार्य और आगरा नगर की सुन्दरता का वर्णन है। उपर्युक्त कर्मचन्द्र बच्छावत जब बीकानेर नरेश से अनबन होने पर अकबर की शरण में आ गये तो उसने उन्हें भी अपना एक प्रतिष्ठित मंत्री बना लिया। कर्मचन्द्र बच्छावत ने पूर्ववर्ती सुलतानों द्वारा अपहृत अनेक धातुमयी जिनमूर्तियां मुसलमानों से प्राप्त कर उन्हें बीकानेर के मंदिरों में भिजवाया था। कहा जाता है कि एक बार शाहजादे सलीम के घर मूल नक्षत्र के प्रथम पाद में कन्या का जन्म हुआ। ज्योतिषियों ने कन्या के ग्रह उसके पिता के लिये अनिष्टकारक बताये और उसका मुख देखने का भी निषेध किया। बादशाह अकबर ने अबुलफजल आदि विद्वान अमात्यों से परामर्श कर मन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत को जैन धर्मानुसार ग्रहशान्ति का उपाय करने का आदेश दिया। मंत्री ने चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्वर्ण रजत कलशों से तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा का समारोहपूर्वक अभिषेक किया। पूजन की समाप्ति पर मंगलदीप और आरती के समय अकबर अपने पुत्रों और दरबारियों के साथ वहाँ आया, उसने अभिषेक का गन्धोदक विजयपूर्वक अपने मस्तक पर चढ़ाया और अन्त:पुर में बेगमों के लिये भी भेजा तथा उक्त जिन मंदिर को दस सहस्र मुद्राएं भेंट की। गुजरात में गिरनार, शत्रुञ्जय आदि जैन तीर्थों की रक्षार्थ अकबर ने अहमदाबाद के सूबेदार आजमखाँ को फरमान भेजा था कि राज्य में जैन तीर्थों, जैन मंदिरों और मूर्तियों को कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार की क्षति न पहुँचाये और यह कि इस आज्ञा का उल्लंघन करने वाला कठोर दण्ड का भागी होगा। उसी काल के मेड़ता दुर्ग के जैन मंदिरों के शिलालेखों में लिखा है कि 'अकबर ने जैन मुनियों को 'युगप्रधान' पदवी दी। प्रतिवर्ष आषाढ़ की अष्टान्हिका में अमारि (जीवहिंसानिषेध) घोषणा की, प्रतिवर्ष सब मिलाकर छह मास पर्यन्त समस्त राज्य में हिंसा बन्द करायी, खम्भात की खाड़ी में मछलियों का शिकार बन्द करवाया, शत्रुञ्जय आदि तीर्थों का करमोचन किया, सर्वत्र गोरक्षा प्रचार किया आदि।' सन् 1595 ई. में पुर्तगाली जैसुइट पादरी पिन्हेरों ने अपने बादशाह को पुर्तगाल भेजे एक पत्र में, अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर लिखा था कि 'अकबर जैन धर्म का अनुयायी हो गया है, वह जैन नियमों का पालन करता है, जैन विधि से आत्मचिंतन एवं आत्माराघन में बहुधा लीन रहता है, मद्य - मांस और चूत के निषेध की आज्ञा उसने प्रचारित कर दी है।' विद्याहर्ष सूरि ने 1604 ई. में प्रणीत अपने ग्रन्थ 'अंजनासुन्दरीरास' में लिखा है कि 'विजयसेन आदि जैन गुरुओं के प्रभाव से अकबर ने गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि पशुओं की हिंसा का निषेध कर दिया था, पुराने कैदियों को मुक्त कर दिया था, जैन 56 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy