SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । सन् 1579 ई. में अकबर मुल्ला - मौलवियों की परवाह किये बगैर स्वयं 'इमामे - आदिल' (धर्माध्यक्ष) बन गया और उसने अपने राज्य में सभी धर्मों को पूर्ण स्वतन्त्रता दे दी इसी वर्ष राजधानी आगरा में दिगम्बर जैनों ने एक मंदिर का निर्माण कराकर समारोहपूर्वक उसकी बिम्ब-प्रतिष्ठा की। आगरा के निकट शौरीपुर और हथिकन्त में तथा साम्राज्य की द्वितीय राजधानी दिल्ली में नन्दि संघ, काष्ठा संघ एवं सेन संघ के दिगम्बर परम्परा के भट्टारकों तथा श्वेताम्बर यतियों की गदिदयां पहले से थीं। फतेहपुर सीकरी के अपने इबादतखाने में अकबर शैव, वैष्णव, जैन, पारसी, इसाई, शिया, सुन्नी, सूफी आदि सभी धर्मों और विचारधाराओं के विद्वानों को आमन्त्रित कर उनके पारस्परिक वाद-विवाद चाव से सुनता था और यदा-कदा स्वयं भी उन वाद - विवादों में भाग लेता था। विभिन्न धार्मिक विचारधाराओं के इस प्रकार अध्ययन से उन सबका समन्वय कर उसने अपने नवीन मत 'दीने-इलाही' को जन्म दिया था। सन् 1581 ई. में बादशाह ने श्वेताम्बर जैनाचार्य हरिविजय सूरि को बुलाने हेतु गुजरात के सूबेदार साहबखाँ के पास संदेश भेजा। बादशाह के आमंत्रण पर आवार्य गुजरात से पैदल ही चलकर आगरा आये। बादशाह ने उनका भव्य स्वागत किया और उनकी विद्वत्ता एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें 'जगद्गुरु' की उपाधि प्रदान की। बादशाह ने फतेहपुर सीकरी के अपने महल में जैन गुरुओं के बैठने के लिये जैनकलायुक्त एक छत्री भी बनवाई जो 'ज्योतिषी की बैठक' कहलाती थी। आचार्य हरिविजय के शिष्य विजयसेनगणि ने दरबार में 'ईश्वर कर्ता-हर्ता नहीं है' विषय पर अन्य धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और भट्ट नामक ब्राह्मण विद्वान को पराजित कर 'सवाई' उपाधि प्राप्त की। बादशाह ने उन्हें लाहौर में भी अपने पास बुलाया था। यति भानुचन्द्र ने बादशाह के लिये 'सूर्यसहस्रनाम' की रचना की थी। अत: वह 'पाठशाह अकबर जुलालुद्दीन सूर्यसहस्रनामाध्यापक' कहलाते थे। वह फारसी के भी उभट विद्वान थे। बादशाह ने प्रसन्न होकर उन्हें 'खुशफहम' उपाधि प्रदान की थी। कहा जाता है कि एक बार बादशाह अकबर के सिर में भयंकर दर्द हुआ। भानुचन्द्र बुलाये गये। उन्होंने बताया कि वह कोई वैद्य - हकीम नहीं है। किन्तु जब बादशाह के विशेष आग्रह पर यतिजी ने उनके माथे पर हाथ रखा तो बादशाह की पीड़ा दूर हो गई। मुनि शान्तिचन्द्र का भी अकबर पर बड़ा प्रभाव था। एक बार ईदुज्जुहा (बकरीद) के निकट वह बादशाह के पास ही थे। उन्होंने ईद से एक दिन पहले वहाँ से चले जाने की बादशाह से अनुमति मांगी क्योंकि अगले दिन ईद के उपलक्ष्य में हजारों - लाखों निरीह पशओं का वध होने वाला था। मुनि शान्तिचन्द्र ने कुरान शरीफ की आयतों से यह सिद्ध कर दिखाया कि 'कुर्बानी का मांस और खून खुदा को नहीं पहुँचता, वह इस हिंसा से प्रसन्न नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से प्रसन्न होता है, रोटी और शाक खाने से ही रोजे कबूल हो जाते हैं।' उन्होंने अन्य अनेक मुसलमान ग्रन्थों का हवाला देकर बादशाह और उसके उमरावों के दिल पर अपनी बात की सच्चाई जमा दी। फलस्वरूप उस वर्ष ईद पर किसी जीव का वध न किये जाने की घोषणा बादशाह ने करा दी। बीकानेर नरेश रायसिंह के मन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत की प्रेरणा से अकबर ने 1592 ई. में श्वेताम्बर यति जिनचन्द्रसूरि को खम्भात से आमन्त्रित किया और लाहौर पधारने पर उनका उत्साह से स्वागत किया। जिनचन्द्रसूरि ने अकबर का प्रति ध करने हेतु 'अकबर प्रतिबोधरास' ग्रन्थ का प्रणयन किया था और बादशाह ने उन्हें 'युग प्रधान' उपाधि प्रदान की थी तथा उनके कहने से दो फरमान जारी किये थे। एक फरमान के द्वारा खम्भात अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy