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________________ अर्हत् वचन । कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर/ ( वर्ष - 15, अंक - 3, 2003, 59 - 64 भारतीय राष्ट्रीयता के अतिपुरुष श्री सुहेलदेव एवं कवि द्विजदीन विरचित सुहेलबावनी -पुरुषोत्तम दुबे* सारांश प्रस्तुत लेख में भगवान संभवनाथ की जन्मभूमि श्रावस्ती के जैन नरेश श्री सुहेलदेव के जीवन एवं उनके शौर्य एवं पराक्रम पर लिखी पुस्तक सुहेलयावनी के काव्यात्मक वैशिष्ट्य की चर्चा है। जैन नरेश का जीवन एवं सहेलबावनी दोनों वीर रस से परिपूर्ण एवं वर्तमान पीढ़ी हेतु प्रेरक हैं। - सम्पादक भारतीय राष्ट्रीयता के इतिहास में अनुसंधानों के कार्य अभी भी शेष हैं। न जाने कितने ही युगपुरुष इतिहास की परतों के नीचे अचीन्हें रहकर दबे पड़े हैं। समय ने जिनको याद किया है उनकी ध्वनियाँ प्रेरणा सदृश हमारे मध्य उपस्थित हैं परन्तु वर्तमान में प्रासंगिकता की दृष्टि से इतिहास के आद्योपांत अध्ययन की आवश्यकता जोर पकड़ने लगी है। इतिहास में अवस्थित युगपुरुषों के चरित्रों की निधियाँ राष्ट्रीय हित में अपरम्पार कार्य के वैशिष्ट्य से उद्वेलित हैं। राष्ट्रीय ऐतिहासिक चरित्रों की गुणवत्ताएँ अतीत में कई बार दोहराई गई हैं। जब भी राष्ट्र के सम्मुख संकट की घड़ियाँ उभर कर आई हैं, इतिहास में वर्णित युगपुरुषों के त्याग और बलिदानों की गाथाओं का अनुसरण कर संकटों का निष्पादन किया गया है। अत: इतिहास से जानकारी बटोरना और इतिहास से सीखना एक प्रकार से दृष्टि- सम्पन्न होने जैसा है। भारतीय राष्ट्रीय इतिहास की धारा अनेक मोड़ और घुमावों के व्यवधानों से टकराकर भी सदैव अविरल रही है। राष्ट्र में लड़ी जाने वाली हमारी लड़ाइयाँ आजकल की बात न होकर सदियों पुरानी है। हमने दो समय के भोजन की आवश्यकता की भाँति राष्ट्रप्रेम को पाला है और राष्ट्र के हित से प्राण - पण को जोड़ा है। हमारी वसुन्धरा के चमकते हए कलेवर ने कई बार विदेशियों को ललचाया है। फलस्वरूप आक्रांता के अर्थ में आई विदेशी शक्तियों से हमको लोहा लेना पड़ा है। अतीत के हजारों सालों में हमने हमारी कमर की कसावट को ढीला नहीं किया है। हम बीती शताब्दियों में हजारों साल राष्ट्र की सीमाओं पर जागते रहे हैं और शत्रुओं के दाँतों को खट्टे करते रहे हैं। हमारे बलिदानों से अभिषिक्त होकर ही वर्तमान में हमारा देश भारत स्वतंत्रता के सिंहासन पर आरूढ़ है। अटक से लेकर कटक तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक जैसी धड़कनों से पूरा राष्ट्र स्पन्दित रहा है। जातिगत भिन्नता और वर्गीय अनेकता का भान हम राष्ट्रीय हित में भूल कर चले हैं, तभी तो विश्व में सिरमौर हमारी शक्तियाँ रही हैं। शत्रुओं के आगे घुटने टेकने की आदत को हमने कभी बलवती नहीं होने दिया है। अहिंसा और संधि प्रस्तावों जैसे मानवीय भावों से यूँ तो हर समय हम परिचालित रहे हैं लेकिन जब भी इस आशय के चलते शत्रुओं ने हमको कायर समझकर हल्ला बोला है तब हमने दुगुना साहस संचित कर शत्रुओं को धराशायी बनाया है। किसी भी राष्ट्रीय चरित्र की पहचान हमने जाति और धर्म के बल पर नहीं ली है। जो भी राष्ट्र हित में लड़ा है वह जाति और धर्म से ऊपर रहा है फिर भी स्थापना के आशय में हमने हमारे राष्ट्रीय चरित्रों को उनकी जाति और उनके धर्म को पहचान के अर्थ में सुरक्षित रखा है। ऐसा इसलिये कि समय - समय पर उनकी विरदावलियों का * प्राध्यापक - हिन्दी, शशीपुष्प, 74 जे/ए. स्कीम नं. 71, इन्दौर (म.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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