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________________ नागपुर के डॉ. एन. आर. वरदपांडे ने समय को क्षेत्र और गति से सम्बन्धित बतलाया कि समय अनादि अनंत है। इसे बिना भूत और भविष्य के समझा नहीं जा सकता। घटनाओं को देखकर कभी - कभी लगता है कि जो कुछ घटा है वही पुन: लौटकर आया हो, यथा सूर्योदय, चन्द्रकलायें। किन्तु यदि घटनायें न हों तो समय नहीं घटा मानना होगा। वास्तव में ये घटनायें नहीं हैं जो बीत चुकी हैं बल्कि लगभग वैसी ही पुन: घटी हैं। एक घड़ी के कांटों की तरह जो एक ही दिशा में लगातार चक्कर लगाते हैं अथवा जैविक घड़ियों की तरह नित्य सुबह मुर्गे बांग या चिड़ियों की चहक। इसे दृष्टिगत रखते हुए समय की शुरूआत को पकड़ा नहीं जा सकता। उस 'समय' को कपड़े के थान जैसा बतलाते हुए किसी एक बिन्दु से बदलाव देखते हुए समय जाना जा सकता है।क्षण और काल अलग हैं क्योंकि क्षण काल का वह अंश है जिसे घटना से जाना जा सकता है। काल को समझा नहीं जा सकता। दार्शनिक कांट ने इसे किसी x घटना बिन्दु से आगे और पीछे (पूर्व) जानने का तरीका बतलाते हुए इस समय को सिद्ध किया है। कभी ऐसी ही घटनायें घटती हैं जिनमें समय के बीतने का पता ही नहीं चलता किन्तु समय तो चलता ही है। दार्शनिक जीनों के अनुसार काल के खंड भी संभव हैं। एक छोड़ा हुआ तीर लक्ष्य पर पहुँचने से पहले चौथाई, आधी, तीन - चौथाई दूरियाँ अलग - अलग काल खंड में पार करके समय को अंशों में तय करता हुआ जाता है। अर्थात् जिस प्रकार हम प्रदेश को दूरी के आधार पर नाप सकते हैं उसी प्रकार कालखंड से दूरी को भी जान सकते हैं। कछुए और खरगोश की दौड़ का उदाहरण देते हुए उसने समझाया है कि क्षेत्र की तरह काल भी विभाजीय है। दूरियों का काल नापा जा सकता है किन्तु यदि दूरियाँ परस्पर विरोधी दिशा में तय की जायें तो अनजान व्यक्ति को 'समय गणना' हेतु भ्रम हो सकता है, भले काल भिन्नता रखता हो। अर्थात् कालगणना के लिये दूरी ही आधार नहीं है। जीनो के संशय के अनुसार ऐसी स्थिति में तीर कभी लक्ष्य पर नहीं पहुँचेगा और समय नकारा जायेगा। पांडे के अनुसार दो विरोधी बातें श्रोताओं के सामने आई हैं - (1) कि संसार कभी न कभी अवश्य किसी काल में प्रारम्भ हुआ है तथा (2) संसार की कोई शुरूआत नहीं है काल में क्योंकि शून्य में कोई भूत नहीं है। कांट भी मानते थे कि क्षण का कोई अस्तित्व नहीं है फिर भी काल तो रहा है। जीनो की भी पहेली यही थी कि धरती और संसार बनने से पूर्व ईश्वर था, तभी तो उसने विश्व बनाया। कर्नाटक के डॉ. लक्ष्मी थाथाचार के अनुसार वैदिक मान्यता में काल ही सबको पकाता है। विशिष्ट अद्वैत वेदांत में काल और प्रकृति का जन्म कैसे? रजो तमो सत्व के असंतुलन से प्रकृति बनी। जब कोई भी एक बढ़ा तभी प्रकृति महान हुई और अहंकार बढ़ा। वह 3 प्रकार का रहा - वैकारिक, राजस और भूतादि अहंकार मय। इस प्रकार मैत्री उपनिष्द में इस धरती और मनुष्य के निर्माण का सिलसिला रजो. तमो, सत्व गुण से हुआ। गुणों का असंतुलन जब सुस्ती को बढ़ा गया तो प्रकृति बनी, महान होकर अहंकार बढ़ा और वैकारिक, राजस तथा भूतादि तामस प्रकार का सामने आया। प्रथम दो ने मिलकर यह तन बनाया और बाद दो ने मिलकर शब्द, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा साथ-साथ उनकी रस अवस्थिति बनाई। प्रकृति से ही काल रहा। प्रकृति से उपरोक्त तीन निकाल दें तो मात्र काल रहेगा। यह सामान्य काल है अन्यथा दूसरा ब्रह्माकाल होता। अर्हत् वचन, 14 (2 - 3), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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