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भक्ति दर्शायी और कैकेयी को धिक्कारा तो पुरुष प्रधान समाज सामने आया। एक पुरुष द्वारा दूसरे पुरुष को कन्यादान भी यही दर्शाता है (पिता द्वारा दामाद को ) जबकि कथाओं में सतियों की चर्चा करके उनकी प्रधानता दर्शायी गई है। यह वह 'शक्तिकाल' था जब नारी शक्ति की प्रधानता थी। तब 64 जोगनियाँ और काली शिव शक्ति के रूप में सामने आई ।
'मोक्ष का अर्थ है शाश्वत अस्तित्व किन्तु नारद तो तीनों कालों में झलकता है भूतकाल में वर्तमान में और भविष्य में भी यह 'समय' को स्मृतियों के घेरों में बांधने से ही संभव हुआ है। इसीलिये मीमांसकों ने काल को 'प्रश्न' में रखा है।
दिल्ली की गीता थडानी ने बतलाया कि काली का अस्तित्व भी नारी की स्मृति का ही एक पक्ष है। जिस प्रकार ऋग्वेद का 'इन्द्र' और 'बैल' समय के संधिकाल में खो गये हैं, मात्र स्मृति में उन्हें पढ़कर दोहराया जाता है। रेणुका नामक झील शिव की स्मृति में ही मानी गई है। समय को इस प्रकार स्मृति से बांधा जा सकता है।
पांडिचेरी के डॉ. वी. सी. थामस ने बतलाया कि जीया हुआ समय (बीता काल ) मनुष्य की कृति है, इसे ध्यान से अनुभव किया जा सकता है 'होना' ही काल में दर्शाता है वही स्वयं की अनुभूति कराता है। यह 'होना' भी 'मात्र काल सीमित' है। मनुष्य का जीवन सीमित है। यदि मृत्यु न होती तो जीने की समस्या बन जाती। यह 'होना' भी काल सीमित है। तब काल को हम आयु भी कह सकते हैं। ये आयु पूरा जीवन है। समय सीमित बंधन है जिस पर मनुष्य का कोई प्रभाव नहीं है। मनुष्य के जीवन के भूत, वर्तमान और भविष्य कालांश हैं, मोक्ष से मनुष्य को शाश्वत जीवन का ही बोध होता है।
शांति निकेतन की रीता गुप्ता ने बौद्धों की दृष्टि में 'समय' और 'काल' के क्षणवाद का सिद्धान्त दर्शाया। वह यह कि समय एक छोटा (सूक्ष्म) सा क्षण मात्र है जिसे वर्तमान कहते हैं, जिसमें हमारा 'होना' है। प्रति पल वह 'होता' (पर्याय) बदल दी जाती है। इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी अमर नहीं है। एक बीज लें तो प्रथम क्षण से वह बीज दूसरे क्षण में कुछ बदला सा लगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक मरी हुई चिड़िया को दूसरे क्षण में पुन: नहीं मारा जा सकता है। समय एक क्षण है, जो अभी-अभी सुख की अनुभूति दे रहा था, वही दूसरे क्षण दुःख दे सकता है विज्ञान के आधारभूत भौतिकी, जैविकी, रासायनिक, फिलॉसॉफिकल सिनेमा, टेक्निकल, साइकोलॉजिकल, इन्डस्ट्रियल सभी का विषय यही है क्षण के बिना कुछ भी नहीं और क्षण के बाद भी कुछ भी नहीं मैं वर्तमान में हैं, पर मैं जो पिछले क्षण था सो अब नहीं हूँ। आत्मा है, किन्तु अब वह प्रतिपल बदल रही है। कर्म भी है, पुनर्जन्म भी है, किन्तु यहाँ क्षण बीतते ही सब शून्य हो जाता है। वही मुक्ति है। दुर्रा मोठ समय के प्रभाव से भी नहीं उगती वहाँ क्षण शून्य है।
दिल्ली से नवज्योतिसिंह ने समय के अध्यात्म और तर्क दोनों ही पक्षों पर प्रकाश डाला, जिसमें अव्यक्त और व्यक्त कहकर समय को हम जान सकते हैं। 770 B.C. 500 B.C. के सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया, वे थे तर्क और अध्यात्म तर्क के सिद्धान्त से समय को समझा जा सकता है। अध्यात्म से समय शब्द है, पुरानापन ( परिवर्तन) तर्क है तथा 'होना' अध्यात्म दोनों ही समय दर्शाते हैं, यह संधि क्रमबद्ध जाता है समय भी वैसा ही क्रमबद्ध क्रमबद्ध ही हैं जिससे 'समय' जाना जाता है।
स्तर जैसा है। भाषा अथवा स्वर जैसा जाता है एक दिशा में परिवर्तन भी
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कर्मफल भी है शून्य सिद्ध है,
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अर्हत् वचन, 14 (23), 2002
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