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जैन अवधारणाओं में छिपी वैज्ञानिकता को उजागर करती है।
डॉ. अनिलकुमार ने अध्याय 6 में कोशिका, वायरस तथा निगोदिया जीवों की तुलना की है। कुछ चित्र भी दिये हैं। यह निर्णय निकाला है कि कोशिका तथा वायरस निगोदिया जीव हैं। निगोदिया के बारे में और अधिक स्पष्ट चित्र विकसित होना चाहिये।
'कर्म सिद्धान्त' व 'आत्मा' जैन दर्शन का वह सिद्धान्त है जिस पर सभी भारतीय दर्शन विश्वास करते हैं। जैनेटिकल इंजीनियरिंग ने ऐसी अवधारणाएँ प्रतिपादित की हैं जिन्हें हम जैन दर्शन के अनुकूल पाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में इस तथ्य को जनसुलभ किया गया
सम्मर्छन पर भी श्री जैन ने खोजपरक संदर्भ जुटाये हैं। प्रत्येक वह व्यक्ति जिसे जैन दर्शन पर विश्वास है उसे तो अवश्य इस पुस्तक पर विश्वास जमेगा - अन्य भी इसके निष्कर्षों को सहजता से नकार नहीं पायेंगे। जीवन क्या है? इस पर सोच तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक हम उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य की कसौटी पर सारे परिवर्तनों को कस नहीं लेते। इस पुस्तक की विषय वस्तु को समझने के लिये हमें जैन दर्शन को भी उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझ लेना होगा। भले ही उसके लिये हमें 'नय चक्र' को समझना पड़े। देखें डॉ. अनिलकुमार हमारी इस दृष्टि से क्या मदद करते हैं।
एक बात पर हमें अवश्य ध्यान देना होगा कि जैन चिन्तन में दर्शन व विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। योग और तपस्या ने साधुओं के शरीर को विज्ञानशाला और ज्ञान के विभिन्न आयामों की उपलब्धि ने उसे अवधिज्ञानी बना दिया था। यही वह शक्ति है जिसने इतने सूक्ष्म आब्जर्वेशन को संभव बनाया।
कई जैन वैज्ञानिक धारणाएँ अभी भी विश्लेषण का इन्तजार कर रही हैं। भाई अनिलजी को बहुत धन्यवाद कि उन्होंने इस बन्द खजाने पर दस्तक दी। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ एवं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ को इतने उपयोगी प्रकाशन को कम दाम में उपलब्ध कराने के लिये शुभकामना।
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अर्हत् वचन, 14 (1), 2002
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