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जीवन क्या है? What is Life?
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पुस्तक समीक्षा
जैन धर्म में जीवन : वैज्ञानिक दृष्टिकोण
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जीवन क्या है ?
डॉ. अनिलकुमार जैन, अहमदाबाद
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर एवं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ, जम्बूद्वीप - हस्तिनापुर
प्रथम, वर्ष 2002, आकार - डिमाई, पृष्ठ 102 + XIV, मूल्य - रु.50/श्री सूरजमल जैन बोबरा, 9/2, इन्दौर - 452015
समीक्षक
स्नेहलतागंज,
डॉ. अनिलकुमार जैन शोधपरक कई आलेख लिख चुके हैं। उनकी खोजी दृष्टि ने दर्शन से जुड़े कई वैज्ञानिक लेख लिखे हैं, यह पुस्तिका उन्हीं का संकलन है। सरल भाषा में, वैज्ञानिक आधार के दार्शनिक विषय वस्तुओं को पढ़ना अत्यन्त सुखद है।
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पुस्तकें बहुधा विद्वानों के लिये लिखी जाती हैं, किन्तु मुझे लगता है कि यह पुस्तक विद्वानों के साथ जिज्ञासुओं की भी आवश्यकता पूरी करेगी।
श्रमण जैन चिंतन के दो मुख्य आधार हैं। पहला आधार उसकी दार्शनिक पीठिका व दूसरा आधार उसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण। चूंकि आध्यात्म तथा जीवन की विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति का लक्ष्य इस धारा में सर्वोपरि है अतः दार्शनिक पीठिका पर आचार्यों और विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है और कभी कभी ऐसा लगने लगता है कि इस पर चलना केवल त्यागियों के लिये ही संभव है या उसको समझना केवल विद्वानों का काम है। किन्तु गत दो शताब्दियों के वैज्ञानिक शोध कार्यों ने इस धारणा में बदलाव लाया है। न्यूटन के सापेक्षवाद तथा वसु के वनस्पति में भी प्राण की खोज ने यह संकेत दिया है कि जैन चिन्तन ने अपने वैज्ञानिक सोच के आधार पर ऐसी अवधारणाओं को अपने आगमों से संजो रखा है जिस पर शोध करने से कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं।
सृष्टि की निरंतरता का सिद्धान्त भी अब स्वीकार किया जाने लगा है और जब इसे पूर्णत: स्वीकार कर लिया जायेगा, विश्व से धार्मिक संघर्ष समाप्त हो जायेगा । सृष्टि को यदि कोई तीसरी शक्ति बनाने वाली नहीं रहेगी तो तेरा भगवान और मेरा भगवान का द्वन्द समाप्त हो जायेगा।
जीवन विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिकों ने बहुत अधिक शोध किया है। तो प्रश्न यह पैदा होता है कि जो निष्कर्ष इन वैज्ञानिकों ने निकाले हैं, जैन चिन्तन उस बारे में क्या कहता है ? डॉ. अनिलकुमार ने अपनी पुस्तक में इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढने का, वस्तुस्थिति को पहचानने का प्रयत्न किया है उन्होंने वैज्ञानिक प्ररूपणाओं के आधार पर कहा है
'विज्ञान में जीव के जिन लक्षणों का वर्णन किया गया है उसका वर्णन जैन दर्शन में भी किया गया है'। इन प्ररूपणाओं से रूबरू होना प्रत्येक पाठक को सम्मोहित करेगा ।
सूक्ष्म जीवों की जैन दर्शन में स्थिति पर विचार करते हुए अनिलजी ने बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत दिये हैं। साधारण जीवन में इन वैज्ञानिक खोजों के बारे में हमें बहुत कुछ पता नहीं होता है। हम धार्मिक पाठ करते हुए त्रस व स्थावर के सम्बन्ध में पढ़ते हैं, बोलते हैं, किन्तु हम उस पर गहराई से विचार नहीं कर पाते। यह पुस्तक हमारी
अर्हत् वचन, 14 (1), 2002
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