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________________ वाले अनेक स्थिति एवं अनुभाग वाली कार्माण वर्गणायें एक समूह बनाकर भूमिका निभाती होंगी जिसे सामूहिक रूप-प्रकृति कहा जा सकता है। साथ ही मिथ्यात्व को मिलाकर दर्शन मोह और चारित्र मोह की भूमिकाएं भी कम्प्यूटर की जाल संरचना में किस प्रकार की जाये यह अभी तक शोध का विषय नहीं बन सका है। यदि हम प्रिंसिपल थ्योरेटिक एप्रोच अथवा सिद्धान्त-सैद्धान्ती विधा के विषय में विचार करें तो हमें शीर्ष से तल तक की पहँच की यथा संभव जानकारी ज्ञात हो सकती है। अभी तक कन्स्ट्रक्शन थ्योरेटिक एप्रोच रही है जिसे हम संरचना - सैद्धान्ती विधा कह सकते हैं। इसे तल से शीर्ष तक की पहुँच कहा जाता है। ज्ञान के भेदों में केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म परमाणुओं या निषेकों के क्षय से प्रकट होता है। क्षायिक दर्शन या केवलदर्शन दर्शनावरण कर्म निषेकों के क्षय से प्रकट होता है। इसी प्रकार मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि एवं चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन क्षायोपशमिक भाव होने से क्रमश: अपने कर्म निषेक आवरण के क्षयोपशम द्वारा प्रकट होते हैं। क्षयोपशमिक की प्रक्रिया में अपने प्रतिपक्षी कर्मों के स्पर्द्धकों को उदयाभावी क्षय से, किन्हीं स्पर्द्धकों के उपशम से व किन्हीं स्पर्द्धकों के उदय से जो भाव प्रकट होते हैं उन्हें क्षायोपशामिक भाव कहते हैं। किन्हीं स्पर्द्धकों की मात्रा भी होती है और उसकी शक्ति भी दी गयी होती है। इन्हें वर्ग, वर्गणा तथा गुणहानि की मात्रा और शक्ति से समीकरणों द्वारा कर्म सिद्धान्त से संबंधित किया जाता रहा है। जहाँ संज्ञी या मन सहित की चर्चा आती है उन्हें संज्ञी जीव कहते हैं। संज्ञी या सैनी याने मन सहित पंचेन्द्रिय संज्ञी कहे जाते है जो चारों गतियों में पाये जाते हैं। किन्तु असंज्ञी (या अल्प संज्ञी) एकेन्द्रिय जीव से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक असंज्ञी होने से तिर्यंच कहे जाते हैं। मन दो प्रकार का होता है - द्रव्य मन जिसे हम मस्तिष्क (Brain) कह सकते हैं तथा भाव मन ज्ञान रूप परिणति को कहा जा सकता है जो मति और श्रुत रूप दिखा सकता है। अत: जैन सिद्धांत के जीव कर्म विज्ञानानुसार हमें कम्प्यूटर के साफ्टवेअर (Software) में कर्म - तंत्रिका निषेकों (Cells) के (न्यूरान) निर्मित जालों में क्षय एवं क्षयोपशम की प्रक्रिया निर्धारित करना होगी जो अपने - अपने यथायोग्य समूहों में कार्य (Function) कर सकें। पदगल के विशेष गुण - 5 वर्ण, 5 रस, 2 गंध, 8 स्पर्श के उद्दीपक निषेकों से जब उपरोक्त कर्म- तंत्रिका-निषेकों के सत्व पारस्परिक क्रिया करते हैं तो सत्व के प्रतिसमय परिवर्तन के साथ कुछ तंत्रिका - निषेकों के उदय उदीरणा भूत निर्जरा होने के कारण जीव अपना प्रत्युत्तर (Response) अपनी अपनी यथायोग्य परिणति के अनुसार उत्तेजनशीलता (Irritability) द्वारा प्रदत्त करते हैं। अत: उद्दीपन और उत्तेजनशीलता के सम्बन्ध - समीकरणों से जीव की कर्म-फल चेतना, कर्म चेतना तथा ज्ञान चेतना का प्रमाण (Measure) प्राप्त हो सकता है। जो आस्रवित समयप्रबद्ध तंत्रिका-निषेक के प्रदेश, अनुभाग एवं स्थिति को लेकर उदय, उदीरणादि रूप निर्जरा को प्राप्त होता है, वह उत्तेजनशीलता रूप है। अत: इन प्रकृति, प्रदेश अनुभाग, स्थिति रूप चार न्यास प्रमाण का गहन अध्ययन कम्प्यूटर में Feed किया जाना विशेष महत्वपूर्ण होगा। इसमें स्वमेव कषाय (Emotion) की यांत्रिकी (Mechanics) भी कम्प्यूटर अर्हत् वचन, 14 (1), 2002 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526553
Book TitleArhat Vachan 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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