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में समावेशित हो सकेगी, जो अभी तक कम्प्यूटर विज्ञान में विकसित नहीं हो सकी हैं।
कषाय के प्रदर्शन की असफलता के साथ ही साथ, पुरानी विधाओं वाले कम्प्यूटर देखने, सुनने, भाषण को समझने आदि की मस्तिष्क सम्बन्धी क्रियाओं को करने में असफल रहे हैं। मात्र 1.35 किलो ग्राम के इस मस्तिष्क का पिण्ड कृत्रिम रूप से बनाने में शोधार्थी उसकी मौलिकता, एकाग्रता और चेतना का प्रतिरूप बनाने में असफल रहे हैं। केवल शोध में इतना अवश्य हो सकता है कि तंत्रिका - निषेकों के समूह एक साथ, एक ही समय क्रियांवित होकर देखने, सूंघने, सुनने आदि कि क्रियाओं में भूमिका निभाते हैं। तंत्रिका - निषेकों के जाल शोधार्थीयों को सहायक हो सकते हैं कि मस्तिष्क किस प्रकार सूक्ष्म सूचना प्रक्रिया को निभाते हैं। यद्यपि तंत्रिका-निषेकों से देखने सम्बंधी संकेतों को व्यक्तिश: समझना अत्यंत जटिल कार्य है। तंत्रिका - निषेकों (Neurons) को एक साथ क्रिया प्रतिक्रियांवित करना, वह भी असंख्य संख्या समूह रूप में सिद्ध हुए हों, हमें मस्तिष्क के प्रतिरूप बनाने में सफल बना सकता है। प्रथमत: इंद्रिय जन्य संवेदना की ओर बढ़ना होगा तत्पश्चात् कषायों को प्रदर्शित करने, इसी आधार पर, मस्तिष्क के प्रति रूप जटिलतम रूप में निर्मित हो सकेगें। वह समग्रता की भूमिका अभी केवल मस्तिष्क ही निभा सकता है, जहाँ तंत्रिका-निषेक एक साथ, एक ही समय में एक जुट होकर उद्दीपन के प्रति अपनी क्षमता के अनुकूल दायित्व निभाते देखे गये हैं।
भूमिका हम तत्वार्थसूत्र को लेकर प्रारंभ करेंगे -
"मति स्मृति संज्ञा चिंता अभिनिबोध इत्यनर्थातरम्।।" मस्तिष्क से यहाँ द्रव्य मन अभिप्रेत है। द्रव्य मन की रचना पौद्गलिक है। इस प्रकार द्रव्य मन की रचना में प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग और स्थिति संभव हो जाती हैं।
मनोयोग और कषाय मिलकर स्मृति नामक मतिज्ञान की रचना में सहायक होते होंगे।
सक्षम स्मरण शक्ति अति प्राचीन काल से सभी सभ्यताओं व संस्कृतियों में लाभदायक सिद्ध हुई है, क्योंकि विद्याओं को सीखने का मूल्य सदैव सर्वोपरि रहा है। याद करने की महत्ता भारत में और भी अधिक आंकी जाती रही जो श्रृत रूप ज्ञान को परम्परागत संस्थाओं द्वारा लिपियों के अभाव में सम्राट अशोक के काल तक चली आई। श्लोकादि गढ़ने की कला में भारतीयों ने श्रुत को अक्षुण्ण रखने की जो क्षमता विकसित की वह विश्व के सभी अभिलेखों की संरक्षण कला के आगे निकल गयी। विदेश में भी मार्कस फेसव क्विन्टिलियन (ई. 35-95) ने वक्ताओं को शिक्षित करने हेतु तीन सरल नियम दिये थे1. अच्छी तरह ध्यान दो। 2. अभ्यास करते जाओ। 3. यदि कुछ भी नया सुनो तो उसे अपनी जानकारी के साथ संगत में ले आओ।
यूनान में प्लेटो ने भी मन को मोम की ऐसी टिकिया माना था जिसमें स्मृति
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अर्हत् वचन, 14 (1), 2002
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