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________________ लगाने से उससे निकली हुई तरंगें सब कीड़ों को नष्ट कर देती हैं या बेहोश कर देती हैं। मंदिरों में घण्टा आदि बजाने से उसके क्षेत्र के हानिकारक कीड़े-मकोड़े निश्चेतना की स्थिति में हो जाते हैं। कर्ण अगोचर नाद का उपयोग धातु में झाल लगाने के कार्य में हुआ है। अल्ट्रासोनिक सोल्ड्रिंग द्वारा अल्यूमिनियम के बर्तनों में भी झाल लगाई जा सकती है। शब्द शक्ति से इतना ताप उत्पन्न किया जाता है कि धातु के दो टुकड़े पिघलकर आपस में ही जुड़ जाते हैं। तानसेन की दीपक राग की ऐतिहासिक घटना हम सबके सामने है। नाद संगीतशास्त्र का प्राण पुरुष है। यद्यपि नाद को नितांत संगीत जातिक नहीं माना जा सकता क्योंकि सम्पूर्ण विश्व नादाधिष्ठित है। जैनाचार्यों ने भगवान ऋषभ को शिव रूप में स्मरण किया। शिव संगीत के आदि गुरु हैं। सच्चिदानंद (सत् + चित् + आनन्द) विभूतियों से सम्पन्न प्रजापति ऋषभ से सर्वप्रथम जिस शक्ति का प्रादुर्भाव होता है वह शक्ति नाद को उत्पन्न करती है और नाद से बिन्दु की उत्पत्ति होती है। जैन साहित्य में नाद कला का आकार आधे चन्द्रमा के समान है, वह सफेद रंग वाली है, बिन्दु नीले रंग वाला है। नाद की उत्पत्ति ब्रह्म ग्रंथि से होती है। भगवान शंकर नाद तनु हैं, नाद के प्रवक्ता हैं। संगीतोपनिषद् सारोद्धार में वर्णन है कि नाभि में एक कूर्मचक्र है, उसके कंद पर परभिनी है, उसकी नाल में एक यंत्र है, उसमें एक कमल है, उसमें अग्निप्राण की स्थिति है. उससे अग्निवाय संयोग से सिद्ध ध्वनि उत्पन्न होती है, उसी सिद्ध ध्वनि से नाद की उत्पत्ति होती है। 10 ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों नादात्मा हैं। विशुद्ध नाद अनाहतनाद की उपासना पराशक्ति त्रिदेव और ओंकार की उपासना है। जैन साधुओं ने पुद्गल के सूक्ष्मतम व्यक्तित्व को गहराई से खोजा है। हमारे तीर्थंकर और आचार्यों ने रसायन शास्त्र और भौतिकी के तल पर उसकी स्पष्ट व्याख्यायें की हैं। इस मायने में हम तीर्थकरों को परमाणु विज्ञानी भी कह सकते हैं। वस्तुत: उन्होंने आत्मा को इतना अनावरित कर दिया कि वे मूर्त/अमूर्त तमाम पदार्थों को युगपत् देख सकते थे। या कहें उन्हें यह आपों - आप दिखाई देने लगते थे, समूचा जैनागम परमाणु विज्ञान से भरा - पड़ा है। आवश्यकता इस बात की है कि बारीकियों को विज्ञान की शब्दावली में दुनिया के सामने प्रस्तुत करें। आने वाली पीढ़ी को अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने के लिये हमें जैन दर्शन के इस पक्ष को बहुत स्पष्टता से सामने लाना होगा। हम पुद्गल का जो स्वरूप जैन धर्म में वर्णित है उसे नई भाषा शैली में वैज्ञानिक अक्षरों में प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। हमारा तप क्या है? प्रतिकूल/बाधक परमाणुओं का विरेचन और अनुकूल/साधक परमाणुओं का समन्वयन। आठों कर्म पौद्गलिक हैं। तप पुद्गल के चयापचय से संबंधित हैं। कार्माण वर्गणा की समीचीन समीक्षा से सम्पूर्ण स्थिति स्पष्ट हो जाती है। यदि टेप पर शब्दांकन होता है और हम चुम्बकीय प्रभाव से उसका विरेचन/क्षरण कर सकते हैं तो क्या कार्मण वर्गणा की स्थिति ऐसी नहीं है। ऐसे सैकड़ों क्षेत्र और तथ्य हैं जिन्हें विज्ञान के तल पर प्रवर्तित/प्रतिपादित करने की आवश्यकता है। वनस्पति में प्राण होने के तथ्य को डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने आज से लगभग 1 सदी पूर्व दुनिया के सामने रख दिया। जैन धर्म इस तथ्य को हजारों वर्षों से मानता चला आ रहा है। इन/ऐसे प्रमाणों द्वारा ही हम जैनधर्म के आध्यात्मिक निष्कर्षों की पुष्टि कर सक हैं। क्या यह संभव नहीं है कि हम देश में एक ऐसी सर्व धर्म 13 अर्हत् वचन, 14 (1), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526553
Book TitleArhat Vachan 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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