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है कि शब्द की उत्पत्ति द्रव्य के परमाणुओं के कम्पन द्वारा होती है। इस विवेचन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि हमारे जैनाचार्यों को ध्वनि के सम्बन्ध में बड़ा ही वैज्ञानिक, सुन्दर, सही-सही और पूर्ण ज्ञान था। भौतिक विज्ञान की किसी पुस्तक को यदि आप देखेंगे तो ध्वनि उत्पन्न करने की यही क्रिया लिखी मिलेगी - 1. तारों की झनझनाहट 2. प्लेट या रॉड की झनझनाहट 3. तने हुए परदे की झनझनाहट 4. वायु स्तम्भ के कम्पन से
शब्द या ध्वनि के संबंध में एक बात विशेष रूप से समझने योग्य है- यदि वस्तु के कणों की स्पंदन गति प्रति सेकण्ड की गति से कम है तो कोई शब्द उत्पन्न नहीं होता। स्पंदन की गति जब 16 या 20 प्रति सेकण्ड से बढ़ जाती है तो शब्द सुनाई देने लगता है। जैसे - जैसे स्पंदन गति बढ़ती जाती है, स्वर भी ऊँचा होता जाता है किन्तु स्पंदन गति 20,000 प्रति सेकण्ड हो जाने पर और कभी विशेष अवस्थाओं में 40,000 तक शब्द कर्णगोचर होता है अर्थात् सुनाई पड़ता है। स्पंदन की गति 40,000 प्रति सेकण्ड से अधिक होने पर जो शब्द होता है उसे हमारे कान सुन नहीं सकते। शब्द को कर्णगोचर नाद (अल्ट्रासोनिक) कहा जाता है।
हारमोनियम के अन्दर जो छोटी-छोटी पीतल की पट्टियाँ (रॉड) लगी रहती हैं वे भी इस प्रकार प्रति सेकण्ड भिन्न-भिन्न संख्या में कंपन करती हैं और इस प्रकार भिन्न - भिन्न स्वरों की सुष्टि होती है। संभाषण के समय हमारे कंठ में स्थित स्नायु लगभग 130 बार प्रति सेकण्ड की गति से झनझनाते हैं, झनझनाहट की यह क्रिया बालकों तथा नारियों के कंठ से अधिक तीव्र होती हैं, इस कारण उनका स्वर पुरुष स्वर से ऊँचा होता है। जब हम संभाषण करते हैं तो वायु में लगभग 10 फीट लम्बी तरंगें उत्पन्न होती हैं। ये तरंगें जब कान के परदों तक पहुँचती हैं तो परदा हिलने लगता है और उसके कम्पन करने से हमारे मस्तिष्क में शब्द का बोध होता है किन्तु जब कर्ण अगोचर शब्द की उत्पत्ति होती है तो वायु में ध्वनि की तरंगें केवल एक इंच अथवा आधा इंच की लम्बाई की होती है। इन सूक्ष्म तरंगों की यह विशेषता होती है कि ये एक ही दिशा में बहुत दूर तक बिना हस्तक्षेप किये चली जाती हैं। न केवल ध्वनि की तरंगें अपितु विद्युत तरंगों की भी यही स्थिति है। इस कारण बी.बी.सी. आदि रेडियो समाचार छोटी लहरों द्वारा ही भेजे जाते हैं। जिस प्रकार आंधी, तफान बड़े पेड़ों का संहार करते हैं, घास पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इस गुण के कारण कर्ण अगोचर नाद की लहरों का अनेक दिशाओं में उपयोग हुआ है। अल्ट्रा साउण्ड किरणों द्वारा रोगोपचार, रोगों की जाँच आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं।
आजकल पीजों इलेक्ट्रिक ओसोमीटर यंत्र द्वारा कर्ण अगोचर नाद तरंगों को समुद्र की तली में भेजा जाता है। इस तरंगावली के मार्ग में जब कोई बर्फ की चट्टान आ जाती है तो तरंगें उससे टकरा कर वापिस लौट जाती हैं। तरंगों के जाने और लौटने में जो समय लगता है वह एक घड़ी से नाप लिया जाता है। चूंकि समुद्र तल में तरंगों की गति ज्ञात है, गणित करने से चट्टान की दूरी का अनुमान हो जाता है और जहाज खतरों से बचा लिये जाते हैं। इन स्वर लहरों में यदि आदमी अपना हाथ कर देत उसके हाथ से रक्त की बँदें टपकने लगेंगी। एक यंत्र किसी अनाज के खेतों के मध्य
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अर्हत् वचन, 14 (1), 2002
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