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________________ वर्ष-14, अंक-1, 2002, 71-74 अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर जैन साहित्य में ध्वनि/ शब्द विज्ञान - डॉ. अभयप्रकाश जैन* द्रव्य कर्णेन्द्रिय के आधार से भाव कर्णेन्द्रिय के द्वारा जो ध्वनि सुनी जाय उसे शब्द कहते हैं। यह शब्द अनंत परमाणुओं के पिण्ड (स्कंध) से ही उत्पन्न होता है। अनंत परमाणुओं की पिण्ड, स्वभाव से ही उत्पन्न शब्द योग्य वर्गणायें इस लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं। जहाँ - जहाँ शब्द के उत्पन्न करने योग्य बाह्य साधन मिल जाते हैं वहाँ ये शब्द वर्गणायें स्वत: शब्द (नाद) रूप में परिणत हो जाती हैं। महर्षि कणाद शब्द को आकाश का गुण बताते हैं। यदि वास्तव में शब्द आकाश का गुण होता तो कर्णेन्द्रिय द्वारा वह ग्रहण में ही न आ पाता क्योंकि आकाश तो अमूर्तिक है। अमूर्तिक पदार्थ का गुण मर्तिक होना चाहिये। शब्द तो मर्तिक है इसीलिये वह मर्तिक इन्द्रियों, रेडियो, टेपरिकार्ड द्वारा पकड़ा जाता है। शब्द दो प्रकार का होता है - प्रायोगिक और वैशेषिक। जो शब्द पुरुष आदि के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह प्रायोगिक कहलाता है, जो मेघ आदि से उत्पन्न होता है वैशेषिक कहलाता है। शब्द के दो भेद हैं - भाषा और अभाषा। उसमें भाषात्मक शब्द अक्षर - अनक्षर के भेद से दो प्रकार का है। प्राकृत, संस्कृत, आर्य, म्लेच्छादिक भाषा रूप जो शब्द हैं वे सब अक्षरात्मक हैं। जो इन्द्रियातीत जीवों के शब्द हैं तथा केवली भगवान की जो दिव्य ध्वनि है वह अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक हैं। अभाषात्मक के भी दो भेद हैं - प्रायोगिक और वैशेषिक। प्रायोगिक तो तत्, वितत्, धन, सुधिरादि रूप होते हैं। तत् शब्द उसे कहते हैं जो वीणादि से उत्पन्न होता है। वितत्, शब्द ढ़ाल, नगाड़े आदि के होते हैं। झांझ, करताल आदि से उत्पन्न होने वाले शब्द ध्वनि कहलाते हैं और बांसादि से उत्पन्न हों वे शब्द सुधिर कहलाते हैं। ये समस्त पुद्गलों के स्कंधों मैटर से उत्पन्न होते हैं। जितने भी भाषा, अभाषा रूप शब्द लोक में होते हैं उनका उपादान कारण ये भाषा वर्गणायें हैं तथा इसके शब्द रूप परिणमन् में निमित्त कारण स्थूल स्कंधों का परस्पर मिलना (टकराना) है। जैसे ताली बजाना और तालु हिलाना, वाद्य बजाना, धरती पर पग धरना, पानी का परस्पर धक्का होना, वायु का धक्का दीवार आदि को लगना, मेघों का टकराना आदि। इस तरह अंतरंग, बहिरंग कारणों से शब्द पैदा होते हैं, ये शब्द वहीं सुनाई देते हैं जहाँ तक इनकी भाषा वर्गणायें परस्पर एक दूसरे को शब्दायमान करती हई जा सकें। यह निमित्त कारण के बल के ऊपर निर्भर है। बहुत जोर से तालु हिलाने पर शब्द दूर तक जा सकेगा। यदि मंदता से हिलायें तो कम दूरी तक ही जा सकेगा। शब्द अमूर्तिक आकाश का गुण कभी नहीं हो सकता क्योंकि अमूर्तिक के गुण अमूर्तिक और मूर्तिक के गुण मूर्तिक होते हैं। यदि शब्द अमर्तिक होता तो कानों से न सुनाई देता न ही वह किसी से रूक सकता। यदि हम अपने हाथों को मुँह के ऊपर लगाकर बोलें तो हम देखेंगे कि शब्द रुक-रूक कर निकल रहा है। श्लोकवार्तिक में शब्द मूर्तिक है। स्कंध रूप से परिणमन करने वाले पुद्गल ही शब्दादि रूप होते हैं, यही बात प्रमाणित एवं सिद्ध है। इस प्रकार शब्द पुद्गल द्रव्य का पर्याय है। 5 जैन शास्त्रों में पुदगल के छह भेद किये हैं उनमें शब्द (साउण्ड) ध्वनि को पुदगल सूक्ष्म - स्थूल रूप कहा गया है। क्योंकि पुद्गल के इस रूप को आंखों से नहीं देखा जा सकता केवल कर्ण इन्द्रिय से सुना जा सकता है। वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो गया जैन - * एन - 14, चेतकपुरी, ग्वालियर - 474009 (म.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526553
Book TitleArhat Vachan 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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