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________________ टिप्पणी -2 अहत् वचन ) कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर/ .. अहिंसा ही विश्व में शांति का उपाय -इन्दु जैन* पापना। भगवान महावीर 2600 वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव महासमिति की राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष तथा टाइम्स आफ इण्डिया समाचार पत्र प्रकाशन समूह की चेयरमेन श्रीमती इन्द्र जैन द्वारा न्यूयार्क, अमेरिका में संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा आयोजित धर्म एवं अध्यात्म गुरुओं के सहस्राब्दी विश्व शांति सम्मेलन में दिया गया भाषण यहाँ प्रस्तुत है। सम्पादक भगवान महावीर गहन ध्यान की मुद्रा में तल्लीन थे। उनकी आंखें बन्द थीं। चारों ओर एक असामान्य शांति और पवित्रता का वातावरण व्याप्त था। एक नन्हीं सी चिड़िया उड़ती हुई वहाँ आई और फुदकती हुई भगवान के पास जा बैठी। जब भगवान ने आंखें खोली तो उस स्पन्दन से नन्हीं चिड़िया डर गयी और उड़ गई। महावीर ने सोचा कि मनुष्य की आँखे खोलने की प्रक्रिया में भी हिंसा छुपी हुई है। अहिंसा का अर्थ केवल यह नहीं कि हिंसा न हो बल्कि भय की भावना का भी समाप्त हो जाना और सम्पूर्ण मानवता को प्रेम में आबद्ध कर लेना है। अहिंसा का अर्थ है जाति, रंग, वर्ण, धर्म, लिंग, बिरादरी, समुदाय, यहाँ तक कि प्राणी जगत की विभिन्न जातियों की भेद-सीमाओं को पार कर दूसरों त यह चेतना की एक स्वतंत्र अवस्था है। हमारी शारीरिक, भावनात्मक और बौद्धिक अवस्थाएँ हमें सीमा में बांध देती हैं, हमारे रास्ते अवरूद्ध कर देती हैं, हमें छोटा बना देती हैं। यही हमारे दु:खों का कारण है। इन बंधनों और सीमाओं की अनुपस्थिति ही अहिंसा है। और अहिंसा के लिये विश्व - अभियान छेड़ने की दिशा में पहला चरण अज्ञान को हटाना है। सच्चे ज्ञान में आत्म - बोध और आत्म-नियंत्रण निहित है। अहिंसा इस ज्ञान की चरम अवस्था है। क्योंकि यह दूसरों से अपने संबंधों का तादात्म्य करना सिखाती है। मोक्ष और निर्वाण की तरह अहिंसा भी परस्पर विरोधी सीमाहीन दुनियावी नाटकों सुख - दुख, आकर्षण - विकर्षण, प्रेम-घृणा, लाभ-हानि, सफलता-असफलता, अमीरी-गरीबी, भय - साहस, जय - पराजय, मान - अपमान, सम - विषम, गुण - दोष, अच्छा - बुरा, आजादी और बंधन से मुक्त है। संक्षेप में अहिंसा अतीत से, इतिहास से, स्मृति से मुक्ति है। यह उन सब चीजों से मुक्ति है जो बाधित करती है, रोकती है, अवरूद्ध करती है, जिनसे स्वतंत्रता का हनन होता है। इसलिये वह कोई भी चीज या अवस्था, जिस पर उसके विपरीत का प्रभाव या असर पड़ सकता है, मुक्त नहीं है, वह स्वतंत्र नहीं है। और जो स्वतंत्र नहीं है, जो मुक्त नहीं है, जो निरपेक्ष नहीं है, वह अहिंसक नहीं हो सकता। मैं दूसरों की पीड़ा के प्रति तब तक संवेदनशील नहीं हो सकती, जब तक मैं इन परस्पर विरोधी मानवीय क्रियाओं और भावनाओं की बंदी हूँ। मैं दूसरे लोगों और उनकी तकलीफों के प्रति संवेदनशील कैसे हो सकती हैं? जैन दर्शन का अनेकान्तवाद इसका उत्तर देता है। वह कहता है कि सत्य को निरपेक्ष ढंग से बताने या व्यक्त करने वाला कोई पूर्ण सिद्धान्त या सूत्र नहीं है। निर्वाण सम्यक्दर्शन में निहित है, सम्यज्ञान में निहित है, सम्यक्चारित्र में निहित है। यानी आपका विश्वास वैसा हो, आपका कर्म वैसा हो, सरल रूप में इसकी व्याख्या यह हो सकती है कि मेरे करने का तरीका कोई अंतिम तरीका नहीं है। मेरा कहा हुआ पक्ष ही कोई एकमात्र पक्ष नहीं है। और मेरा सत्य ही अंतिम सत्य नहीं है। कई, रास्ते अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000
SR No.526548
Book TitleArhat Vachan 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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