________________
यह 'भ्रामक क्रिया' (Lysogeny) (चित्र - 7) द्वारा देखी जाती है।
युलित प्रगटार वाणाने के उपभोग से बढ़ती खमीर / कोशिका
इस कोशिका
वृशित ईस मेशिकारें
चित्र क्रमांक 10 अनेकों बैक्टीरिया 'स्पोर' और केप्सूल (Spore & Capsules) बनाकर जिस प्रकार मृतप्राय बन छिप जाते हैं और जड़ का सा भ्रम देते हैं वायरस भी वैसा ही भ्रम दर्शाते हैं। इनमें से कोई भी अपने आप स्थान नहीं बदल सकता। ये मात्र द्रव में हलचल करते हैं अथवा शांत भी पड़े रहते हैं। अत: जैनाचार्यों द्वारा इन्हें स्थावर कहना उचित ही जान पड़ता है। इनका प्रसारण हवा, धूल, पानी अथवा फुहार (खांसी, छींक आदि) तथा मल - मूत्र-थूक के सहारे होता है। नया आधार पकड़ते ही ये वहाँ से आहार वर्गणाएं खींचकर बढ़ना और बंटना प्रारम्भ कर देते हैं। वायरस रबों के समान रहते हैं। ये या तो आर.एन.ए. परमाणु के होते हैं अथवा डी.एन.ए. परमाणु के। दोनों ही जैन सिद्धान्तानुसार 'संख्यात प्रदेशिक परमाणु वर्गणाऐं' हैं। वायरस के रबे अधिकांशत: पौधों, प्राणियों अथवा बैक्टीरिया को आधार बनाकर उनमें अपना सम्पूर्ण रसायन घुलित रूप में प्रवेश करा देते हैं। लंबे काल तक इनके रसायन को सूक्ष्मदर्शी यंत्र अथवा रासायनिक परीक्षण भी नहीं पकड़ सकता। रोगी की पीढ़ियां बिना कोई संक्रमण प्रभाव दर्शाए जीवन बिता लेंगी। फिर अचानक किसी पीढ़ी में इनके 'उत्तेजक साधन' के मिलते ही कोई संतति भीषण संक्रमण के प्रभाव दर्शाने लगेगी क्योंकि आधार कोशिका को फाड़कर ये घनीभूत हो वहाँ फैल जाते हैं। अब ये सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखे भी जा सकेंगे। इसी क्रिया को लाइसोजैनी कहा गया है। ये सभी बादर निगोद कहे जायेंगे। पृथ्वीकाय इन जीवों को रबे रूप में 'जड़' किन्तु बाढ़ देखकर 'जीवन' रूप पहचाना जा सकता है।
आश्चर्य तो तब लगता है जब हम पाते हैं कि लावा की अग्नि में भी थर्मोपाइल बैक्टीरिया पाये जाते हैं- भट्टी की भभूदर में भी इन्हें पनपते देखा गया है। तब जैन सिद्धान्त में बतलाये अग्निकायिक और अग्नि जीवों की बात समझ में आती है। जैनाचार्यों ने जीव प्ररूपणा के अंतर्गत जीवों को जिस सूक्ष्मता से वर्णित किया है वह उनकी हजारों लाखों वर्षों पूर्व की ज्ञान उपलब्धियों को दर्शाता है। संयम और व्रतों के अन्तर्गत 'अनर्थदंडवत' द्वारा इन सबों की रक्षा की गई थी। 'जीओ और जीने दो' के अन्तर्गत सभी जीवों में 'जीव' द्रव्य को समान सुरक्षा दी थी। सत्यार्थी - जीवरक्षार्थ सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले सत्यार्थी को जैनाचार्यों ने सम्यक्दृष्टि नाम दिया था। अर्थात् जो वास्तविकता को सत्यता से समझे, अन्यथा अथवा प्रमादवश शरीर
अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000