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________________ टिप्पणी-4 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर निगोदिया जीव - सुल्तानसिंह जैन* 'आस्था एवं अन्वेषण'' के उल्लेखानुसार "जैन धर्म के अनुसार यदि जीव अपनी शारीरिक संरचना पूर्ण करने में सक्षम होता है तो उसे पर्याप्तक कहते हैं और जब वह शारीरिक संरचना पूर्ण करने की क्षमता से रहित होता है और शारीरिक संरचना के पूर्व ही मर जाता है तब उसे लब्धपर्याप्तक कहते हैं। निगोदिया जीव पर्याप्तक और लब्धपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं" _ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जो निगोदिया जीव शारीरिक संरचना पूर्ण होने से पूर्व ही मर जाता है उसे जीव कैसे मान लिया गया है? संसार का हर जीव भले ही वह सम्मूच्छन युक्ति से उत्पन्न क्यों न हुआ हो, अपनी पूर्ण संरचना में ही जीव है, इससे पूर्व वह मरता नहीं है, अपितु अपने विभिन्न रूपों से गुजरता हुआ पूर्णता को प्राप्त करता है। जैसे मेंढक के भ्रूण के पश्चात उसका जीव विभिन्न आकृतियों में होता हुआ, जिनमें एक छोटी मछली जैसी भी आकृति है, अपनी पूर्ण शारीरिक संरचना को प्राप्त करता है। यदि पूर्ण शारीरिक संरचना तक पहुँचने से पूर्व ही वह किन्हीं कारणों से मर जाता है तो जीव सन्दर्भ में यह सैद्धान्तिक तर्क नहीं है। अक्टूबर 99 के 'स्वानुभूति प्रकाश' पत्रिका के पृष्ठ 2 पर श्री कानजी स्वामी के प्रवचन (दि. 7.6.78) के अनुसार 'निगोदिया जीव एक श्वास में 18 भव धारण करता जबकि 'आस्था और अन्वेषण' 2 में डॉ. अशोककुमार जैन (रीडर - वनस्पति विभाग, जीवाजी वि.वि., ग्वालियर - म.प्र.) ने विचार व्यक्त किया है कि 'सामान्यत: यह प्रचलित है कि निगोदिया जीव एक श्वास में अठारह बार जन्म - मरण करता है, जो ठीक नहीं है।' उपरोक्त विचारों में किसे सही मानें, यह एक प्रश्न चिन्ह है। कृपया विद्वान इसका स्पष्टीकरण करें। सन्दर्भ 1. आस्था एवं अन्वेषण, सम्पादक-सुरेश जैन I.A.S., भोपाल, अप्रैल-99, पृ. 13 2. वही * वैज्ञानिक 767, वेस्ट अम्बर तालाब, रूढ़की- 247667 राष्ट्र की धड़कनों की अभिव्यक्ति नवभारत टाइम्स 82 अर्हत् वचन, जनवरी 2000
SR No.526545
Book TitleArhat Vachan 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size24 MB
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