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________________ अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर . वर्ष - 12, अंक - 1, जनवरी 2000, 13 - 16 जैन धर्म की प्राचीनता और ऋषभदेव* - संगीता मेहता** प्रागैतिहासिक तथा जीवन्त धर्म और दर्शन की परम्पराओं में जैन धर्म का विशिष्ट स्थान है। मानवीय संस्कृति के सूत्रधार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ही जैम धर्म के संस्थापक हैं। सिन्धु घाटी में उत्खनन से प्राप्त मुद्राओं में वृषभ का चिह्न आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का ही प्रतीक है। भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों और वैदिक पुराणों में प्राप्त प्रमाण तथा मोहजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त अवशेष इस बात के परिचायक हैं कि उस समय जैन धर्म का अस्तित्व जन-जन में पूर्णरूप से व्याप्त था। पुरातत्त्व साहित्य तथा इतिहास में अनेक ऐसे साक्ष्य हैं, जिनसे जैन धर्म की प्राचीनता निर्विवाद है। जैन पुरातत्त्व के तथ्य सर्वप्रथम मोहन - जोदड़ो की खुदाई से प्राप्त हुए हैं जिसने की प्राचीनता को आज से 5000 वर्ष पूर्व धकेल दिया है। मोहन - जोदड़ो से प्राप्त सीलों में उत्कृष्ट कला तथा जैन संस्कृति के विषयों का सफल संयोजन है, ' जो भारत सरकार के केन्द्रीय पुरातात्त्विक संग्रहालय में संरक्षित है। 2 इसमें दाँयी ओर कायोत्सर्ग . मुद्रा में ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, पास में राजसी ठाठ में उष्णीषधारी ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत अंजली बद्ध नतमस्तक हैं, उनके पीछे वृषभ (बैल) है, अधोभाग में सात प्रधानामात्य हैं जो तत्कालीन राजसी गणवेश में पदानुक्रम से पंक्तिबद्ध हैं। इसी सील में उत्कीर्ण कायोत्सर्ग मुद्रा जैनों की अपनी लाक्षणिकता है। त्रिशूल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय का सूचक है। वृषभ (बैल) ऋषभदेव का चिह्न सिन्धुघाटी से प्राप्त कुछ सीलों पर जैन संस्कृति के प्रतीक चिह्न हैं जैसे - स्वस्तिक, कल्पवृक्ष 4 तथा त्रिशूल सिन्धु घाटी के लोक जीवन में भी स्वस्तिक एक मांगलिक प्रतीक था। जैनों में यह स्वस्तिक विशेष पूज्य है तथा जैन जीव सिद्धान्त का प्रतीक है (जीव की चार गति नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव)। स्वस्ति का अर्थ कल्याण भी है। त्रिशूल रत्नत्रय का प्रतीक है और. कल्पवृक्ष ऋषभदेव . की कायोत्सर्ग मूर्ति के परिवेष्टन के रूप में उत्कीर्ण है। इन सीलों में जैन विषय और पुरातत्त्व रूपक के माध्यम पुरातत्त्व, इतिहास और परम्परा की दृष्टि से महत्वपूर्ण ही नहीं, अपितु प्रतिनिधि निधि भी सिन्धु घाटी की लिपि एवं अवशेषों की गवेषणा से जैन संस्कृति के नित नवीन तथ्य प्राप्त हो रहे हैं। बिहार के प्रशासकीय अधिकारी श्री निर्मलकमार वर्मा ने सिन्ध लिपि का अध्ययन करके बताया कि प्राकृत भाषा सिन्धु सम्यता की भाषा थी जिसकी लिपि बाद में बदल गई। सिन्धु घाटी की चित्रलिपि से प्राकृत भाषा के शब्दों के अर्थ मिलते हैं। यह ज्ञातव्य है कि जैनाचार्यों की उपदेश एवं लेखन भाषा भी मूलत: शौरसेनी प्राकृत एवं अर्धमागधी ही रही है। दो हजार वर्ष पूर्व राजा कनिष्क तथा हुनिष्क आदि के शासन में खुदाई से प्राप्त * कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा आयोजित जैन विद्या संगोष्ठी (12 - 13 मार्च 1998) में प्रस्तुत। ** सहायक प्राध्यापक-संस्कृत, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर। सम्पर्क - ई.एच. 37, स्कीम नं. 54, इन्दौर-452 001
SR No.526545
Book TitleArhat Vachan 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size24 MB
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