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मथुरा संग्रहालय में संरक्षित शिलालेख इस बात के परिचायक हैं कि ऋषभदेव आदि पुरुष आदि तीर्थंकर थे और जिन्हें जैनियों ने मूर्ति लिपि के माध्यम से साकार किया था।'
विदेशों में भी अनेक स्थानों पर खुदाई में तीर्थंकरों की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं तथा वहाँ की अनुश्रुतियों में प्रसिद्ध नाना घटनाएँ भी इस तथ्य का विशद उदघाटन करती हैं। प्रो. आर. जी. हर्षे के शोधपरक लेख के अनुसार आलसिफ (साइप्रेस) से प्राप्त अपोलो (सूर्य) की ई. पूर्व 12 वीं शती की मूर्ति का अपरनाम 'रेशेफ' (Reshef) है। 8 यह 'रेशेफ' 'ऋषभ' का ही अपभ्रंश रूप है। ये ऋषभ संभवत: भारतीय नरेश नाभि पुत्र हैं, फोनेशिया में बैल चिह्न के कारण रोशेफ का अर्थ- जीवों वाला देवता है, यह ऋषभदेव के बैल चिह्न की ओर इंगित करता है। फणिक लोग जैन धर्म के भक्त थे, यह जैन कथाग्रंथों से प्रमाणित है। यूनान में भी सूर्यदेव अपोलो की ऐसी नग्न मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका साम्य ऋषभदेव की मूर्तियों से है। डॉ. कालिदास नाग की 'डिस्कवरी ऑफ एशिया' नामक पुस्तक में मध्य एशिया में डेल्फी से प्राप्त एक आर्गिव मूर्ति का चित्र दिया है जो लगभग दस हजार वर्ष पुराना है और वह ऋषभदेव की दिगम्बर जैन मूर्ति से साम्य रखता है, जिसमें ऋषभदेव के कंधों पर लहराती जटाएँ भी हैं। यहाँ 'आर्गिव' शब्द का तात्पर्य अग्रमानव या आदिदेव के रूप में लगाया जा रहा है। समग्र विश्व में ऋषभदेव कृषि देवता, वर्षा के देवता और सूर्य देवता के रूप में प्रसिद्ध हैं। मध्य एशिया. मिस और यूनान में ज्ञान के कारण वे सूर्यदेव कहलाये। चीनी त्रिपिटक में उनका उल्लेख है। जापान में उन्हें रोकशब (Rok Shab) पुकारा गया।
भारतीय ही नहीं, अपितु विश्ववाड़मय के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में अनेकों ऋचाओं में ऋषभदेव की स्तुति और जीवन परक उल्लेख मिलते हैं। यथा ऋषभदेव की स्तुति आत्मसाधकों में तथा मर्यों में सर्वप्रथम अमरत्व पाने वाले महापुरुष के रूप में की है।
हमुरावी (2123 - 2081 इ.पू.) के शिलालेखों के अनुसार स्वर्ग और पृथ्वी का देवता ऋषभ था। हित्तियों, मिस्रियों, अक्कड़ो, मितन्नियों, सुमेरो, यूनानियों आदि में उनकी आराधना विद्यमान थी।
अयोध्या प्रदेश के नाभिसुत ऋषभदेव ने पाषाणकालीन प्रकृत्याश्रित असभ्य युग का अंत करके ज्ञान - विज्ञान संयुक्त कर्म प्रधान मानवीय सभ्यता का भूतल पर सर्वप्रथम 'ॐ नमः' किया। जीवन के विविध क्षेत्रों में विकास के लिये अपने पुत्रों को पृथक - पृथक शास्त्र में निष्णात किया। ब्राह्मी और सुन्दरी नामक पुत्रियों को लिपि और अंक ज्ञान देकर नारी शिक्षा का सूत्रपात किया। शिक्षा का क्षेत्र हो या साहित्य का, कला हो या धर्म और दर्शन का, उनका ज्ञान अप्रतिम और प्रतिभा विलक्षण थी। इसीलिये उनका प्रभाव जनजीवन : साहित्य में, वास्तु, मूर्ति, चित्र, शिल्प आदि कलाओं के रूप में विद्यमान है।
भारतीय ही नहीं, अपितु विश्ववाङ्मय के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में अनेकों ऋचाओं में ऋषभदेव की स्तुति और जीवन परक उल्लेख मिले हैं। यथा ऋषभदेव की स्तुति आत्मसाधकों में प्रथम, मर्यों में अमरत्व पाने वाले सर्वप्रथम महापुरुष के रूप में की है। उनके उपदेश
और विलक्षण वाणी को पूजनीय, शक्ति सम्पन्न तथा देव और मनुष्यों में पूर्वयावा (पूर्वगतज्ञान के प्रतिपादक) बताया। 10 कतिपय स्थलों पर उनकी आकृति की गरिमा मंडित की गई है। अन्यत्र नामोल्लेखपूर्वक आत्मा में परमात्मा के अधिष्ठानत्व की पुष्टि की है। 12 सब प्राणियों के प्रति मैत्री भावना के कारण वे देवत्व रूप में पूजनीय थे। 13 यजुर्वेद में उन्हें सूर्य के समान तेजस्वी तथा मुक्ति मार्गदर्शी कहा है। 14 मनुस्मृति
अर्हत् वचन, जनवरी 2000