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पालकी को राजाओं ने, पुनः विद्याधरों ने, अनन्त्तर देवों ने उठाई और प्रभु को लेकर सिद्धार्थक वन में पहुँचे। वहाँ प्रभु ने 'वटवृक्ष' के नीचे अपने केशों का लोच करके सर्व वस्त्राभूषण त्यागकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और छह माह का योग लेकर ध्यान में स्थित हो गये, तभी से उस स्थान का 'प्रयाग' यह नाम प्रसिद्ध हो गया।
भगवान के साथ चार हजार राजाओं ने दीक्षा ली थी। वे सब एक-दो माह में ही भूख-प्यास से व्याकुल हो वन के फल खाने लगे एवं झरने का पानी पीने लगे। तब वनदेवता ने उन्हें इस दिगम्बर मुद्रा में ऐसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने से रोक दिया अत: उन सभी साधुओं ने नाना वेश धारण कर लिये। प्रभु की आहार चर्या -
छह माह के ध्यान के अनन्तर प्रभु आहार के लिये निकले। उन दिनों किसी को भी दिगम्बर जैन मुनियों को आहार देने की विधि मालूम नहीं थी अत: प्रभु को छह माह और निकल गये। भगवान एक वर्ष उनतालीस दिन बाद हस्तिनापुर पहुंचे। वहाँ युवराज श्रेयांस को जाति स्मरण होने से आहारदान की विधि ज्ञात हो गई। अत: अपने भाई सोमप्रभ के साथ उन्होंने प्रभु का पड़गाहन कर नवधाभक्ति करके उन्हें करपात्र में इक्षुरस का आहार दिया। पड़गाहन करना, उच्चासन देना, पाद प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन - वचन - काय और भोजन की शुद्धि कहना, ये 'नवधा भक्ति' कहलाती है।
___ आहार के समय देवों ने श्रेयांसकुमार के आंगन में पंचाश्चर्य वृष्टि की थी - पुष्पवृष्टि, गंधोदकवृष्टि, रत्नवृष्टि, देवदुंदुभि और जयजयकारा ये पंचाश्चर्य कहलाते हैं। उस दिन वैशाख शुक्ल तीज थी जो कि आज तक भी 'अक्षय तृतीया पर्व' के नाम से प्रसिद्ध
केवलज्ञान कल्याणक -
एक हजार वर्ष के तपश्चरण के बाद प्रभु को 'पुरिमतालपुर' के उद्यान में वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी क्षण इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने पृथ्वी से 5000 धनुष (20000 हाथ) ऊपर आकाश में अधर दिव्य समवसरण की रचना कर दी। इन्द्रादि देवों ने आकर प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव मनाकर महती पूजा की। इसी नगर के राजा ऋषभसेन जो कि भगवान के तृतीय पुत्र थे, उन्होंने आकर प्रभु के पास दीक्षा लेकर प्रथम गणधर का पद प्राप्त कर लिया। प्रभु की बड़ी पुत्री ब्राह्मी ने आर्यिका दीक्षा लेकर गणिनी पद प्राप्त कर लिया।
प्रभु के समवसरण में (1) मुनिगण, (2) कल्पवासिनी देवियाँ. (3) आर्यिकाएँ एवं श्राविकाएँ, (4) ज्योतिषी देवियाँ, (5) व्यन्तर देवियाँ, (6) भवनवासिनी देवियाँ, (7) भवनवासी देव, (8) व्यन्तर देव, (9) ज्योतिषी देव, (10) कल्पवासी देव, (11) चक्री आदि मनुष्यगण और (12) पशुगण, ये सभी क्रम से बारह सभाओं में बैठकर प्रभु का उपदेश सुनते थे।
प्रभु की दिव्यध्वनि 718 भाषाओं में खिरती थी जिसे सभी भव्यगण अपनी - अपनी भाषा में समझ लेते थे अत: इसे 'सर्वभाषामयी' भी कहते हैं। निर्वाण कल्याणक -
जब तृतीय काल में तीन वर्ष, साढ़े आठ माह शेष रह गये तब प्रभु ने कैलाश पर्वत पर योगनिरोध कर सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लिया। अब वे अनन्त - अनन्तकाल तक वहीं सिद्धशिला पर लोक के अग्रभाग पर विराजमान रहेंगे, कभी भी संसार में वापिस अर्हत् वचन, जनवरी 2000