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ग्रह
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सूर्य
लं 4
आराध्य तीर्थंकर
भगवान पद्मप्रभु चन्द्रमा भगवान चन्द्रप्रभु
मंगल भगवान वासुपूज्य 4. बुध भगवान विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथनाथ,
अरहनाथ, नमिनाथ एवं वर्द्धमान भगवान आदिनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ,
सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ एवं श्रेयांसनाथ 6. शुक्र भगवान पुष्पदंतनाथ 7. शनि भगवान मुनिसुव्रतनाथ 8. राहु भगवान नेमीनाथ
9. केतु भगवान मल्लिनाथ एवं पार्श्वनाथ
अतएव उपरोक्त कारणों से कर्म बन्ध के आबाधा काल, उदयकाल एवं फल देने की शक्ति में परिवर्तन होता रहता है।
___7. लेख के अनुसार प्रत्येक कर्म बन्ध निरन्तर 7 कर्मों में (दर्शनावरणी, ज्ञानावरणी, मोहनीय, अंतराय, वेदनीय, नाम, गोत्र) विभाजित होता रहता है, ठीक नहीं है। किसी भी कर्म बन्ध का विभाजन सिर्फ 5 प्रकार के कर्मों में ही हो सकता है। वे हैं दर्शनावरणी, ज्ञानावरणी, मोहनीय, अंतराय एवं वेदनीय। नाम एवं गोत्र कर्म तो वर्तमान पर्याय से जुड़े हैं। विग्रह जाति के अवसर या उससे पूर्व में कर्म बन्ध 8 कर्मों में विभाजित हो सकते हैं ताकि अगली पर्याय, नाम एवं गोत्र का निर्णय हो सके।
8. कार्मण वर्गणायें वातावरण में सघनता से विद्यमान रहती हैं और कर्म बन्ध आत्मा की स्थिति के अनकल ही होता है। आत्मा की स्थिति से यहाँ तात्पर्य कर्म बन्ध के सिगनल को आत्मा ग्रहण करती है अथवा नहीं।
9. लेख में होलोग्राम (चित्राभ) भाव बन्ध के कारण होता है किन्तु द्रव्य बन्ध की प्रक्रिया किस प्रकार होगी, कितने काल पश्चात होगी, इसका विवेचन नहीं किया गया
अंत में कर्मबन्ध जैसे नीरस विषय को आधुनिक विज्ञान से जोड़ने का लेखक का प्रयास सराहनीय है। आशा है कि भविष्य में भी अर्हत् वचन के माध्यम से इस प्रकार की नवीन शोधों की जानकारी प्राप्त होती रहेगी। लेखक का श्रम प्रशंसनीय है एवं इस विषय के चयन हेतु बधाई।
* सांख्यिकी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन - 4566 010
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नवभारत टाइम्स
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अर्हत् वचन, अप्रैल 99