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लेख समीक्षा
अर्हत् वच
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर कर्मबंध का वैज्ञानिक विश्लेषण - समीक्षा
■ रमेशचन्द जैन *
समीक्ष्य लेख अर्हत् वचन 10 (3), जुलाई 98 के अंक में पृष्ठ 55-62 पर प्रकाशित हुआ है। लेखक डॉ. जिनेश्वरदासजी जैन जयपुर हैं। लेख से सम्बन्धित कुछ तथ्य एवं जिज्ञासायें निम्न हैं
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1. आत्मा की तुलना एक बैट्री से की गई है और तैजस शरीर को एक चिप माना है जो कि क्लाक आवृत्ति उत्पन्न करने वाला है। चित्र संख्या 4 में आत्मा पर तैजस शरीर एवं उस पर कार्मण शरीर दिखाया गया है। यह उचित नहीं है। कार्मण शरीर सूक्ष्मतम शरीर है अतएव आत्मा पर कार्मण शरीर के पश्चात तेजस शरीर होना चाहिये। आत्मा एवं दोनों शरीर को हम अपने चक्षुओं से नहीं देख सकते हैं किन्तु विग्रह गति पर ये तीनों दूसरी पारी में स्थानान्तरित हो जाते हैं।
2. समय (काल) एवं पर्यायों के साथ तैजस शरीर में परिवर्तन होता रहता है। अतएव तैजस शरीर को परिवर्तनीय चिप कह सकते हैं।
3. एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों की क्लाक आवृत्ति की संख्या एवं आयाम न्यूनतम से उच्चतम तक बढ़ती रहती है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में केवल्य ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति है । केवल्यज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा की क्लाक आवृत्ति अल्ट्रा वायलेट, इन्फ्रारेड एवं क्ष- किरणों की आवृत्ति से भी उपर चली जाती है जिसमें प्रत्येक जीव की भूत, भविष्य की सभी पर्यायों को एक साथ जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि वर्तमान में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में यह क्षमता क्यों नहीं है? क्या यह गुण क्षेत्र विशेष पर निर्भर करता है ? आधुनिक संगणकों की उन्नति को देखते हुए यह लगता है कि भविष्य में ऐसे संगणक का निर्माण होगा जिसकी क्लाक आवृत्ति अल्ट्रावायलेट, इन्फ्रारेड या क्ष-किरणों से भी अधिक हो और वह किसी भी जीव की भूत एवं भविष्य की समस्त पर्यायों की जानकारी दे सकेगा।
4. कार्मण वर्गणायें और आत्मा के बीच उर्जा के आदानप्रदान होने के प्रक्रम को आस्रव कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है भावास्रव और द्रव्यास्रव। दोनों प्रकार के आस्रवों में मन (छठी इन्द्रिय) की प्रमुख भूमिका रहती है। आगम में भी मन का स्थान प्रथम है। तत्पश्चात वचन एवं शरीर आते हैं। अतएव आस्रव पर मन की महत्वपूर्ण भूमिका है। लेखक ने द्रव्यास्रव को बिना विवेचन के छोड़ दिया है।
5. कर्म बन्ध भी दो प्रकार का बताया गया है भावबन्ध और द्रव्यबंध। भावबंध में भी मन की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है एवं द्रव्यबंध में वचन एवं काया की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। लेख में द्रव्यबंध पर समुचित विवेचन नहीं किया है।
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6. कर्म बन्ध के आबाधा काल एवं उदय काल में प्रति क्षण परिवर्तन होता रहता है। इसके प्रमुख कारण सद्विचार, संयम, त्याग, तप, ध्यान एवं नवग्रह हैं। सूर्य की कक्षा में चक्कर लगाते हुए विभिन्न ग्रहों का प्रभाव संसार के प्रत्येक प्राणी पर पड़ता है। शांति धारा एवं शांति विधान में नवग्रहों की शांति का वर्णन मिलता है। नवग्रह और उनके आराध्य तीर्थकर इस प्रकार हैं
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अर्हत् वचन, अप्रैल 99
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