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से संघर्ष करने का मार्ग बताते हैं। आश्चर्य है कि वीतरागी, संन्यासी, दिगम्बर होते हुए भी वे समष्टि की खबर रखते हैं और वर्तमान दौर की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं से उद्वेलित और व्यग्र हैं। आतंकवाद की विभीषिका से जो संत संतप्त है वह मनुजता के धर्म का पालन करने वाला, विश्व धर्म के प्रांगण में विचरण करने वाला संवेदनशील अलौकिक पुरुष ही हो सकता है। डा. बारेलाल जैन ने स्थान-स्थान पर विद्यासागर जी महाराज के संतत्व के ऐसे अनेक उदाहरण दिये हैं जो उनकी सात्विक दृष्टि, निष्कलुष विचारणा और लोक मंगलकारी चेष्टाओं के अनुपम साक्ष्य हैं। भारत में संतों की सुदीर्घ परंपरा में यह तथ्य निर्विवाद भाव से मान्य है कि 'साबेर ऊपर मानुण ताहार ऊपर नेहीं' चण्डीदास ने जब यह उद्घोषणा की थी तो वे संतों के शाश्वत धर्म का एक सूत्रीय घोषणा पत्र प्रस्तुत कर रहे थे।
आचार्य विद्यासागर जी महाराज की वाणी में भारतीय आर्ष चिन्तन का श्रेष्ठ स्वर मुखरित होता है। वे कबीर हों, दादू हों, रैदास हों, नानक हो या बाजुल संत हों, ऐसा लगता है कि आचार्य विद्यासागर जी की वाणी की पूर्व अनुगूंज है। इसी बात को हम यों भी कह सकते हैं कि आचार्य विद्यासागर जी की काव्य-वाणी भारतीय परंपरागत संत वाणी का नव्यतम उन्मेष है। इन संतों की विशेषता यह रही है कि वे अनात्मवाद से प्रभावित रहे हैं और एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए कृत संकल्प थे। ये संत मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा करने वालों की अग्रिम पंक्ति में थे। वे न तो शास्त्र से बाधित हुए, न शस्त्र से। निर्भीक भाव से ऊँच-नीच विखण्डित समाज के भेदभाव का परिष्कार करने में मध्यकालीन संतों की जो भूमिका रही है, वह नितान्त महत्वपूर्ण और उपयोगी रही है। आचार्य विद्यासागर जी आज वही कर रहे हैं जो मध्यकालीन संतों ने किया था। उनकी वाणी का महत्व आज इसलिए भी बढ़ जाता है कि मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने का जो दर्द लोकतंत्र में हमारा आदि प्रेरक प्रस्थान है, विद्यासागर जी लोकतंत्र की उसी आकांक्षा की पूर्ति में संलग्न है। उनका काव्य न तो रूप - विलास है, न वाणी- विलास । सबकी समझ में आने वाली भाषा में प्रभावित करने वाली शैली में आचार्य विद्यासागर जो कुछ भी कहते हैं वह एक पारदर्शी और निर्मल मन की अभिव्यक्ति है। परिहास, विदाधता, विनोद उनके स्वभाव का सहज गुण है जो उनकी काव्य शैली में सहज परिलक्षित है। शब्द को तनिक - सा तोड़ मरोड़कर वे अभीप्सित अर्थ की प्रतीति कराने में दक्ष हैं, बोलियों से उनकी संपृक्ति अनुकरणीय है, बहुभाषाविद् होने के कारण उन्हें शब्दों का संघान नहीं करना पड़ता । शब्द उनके पास स्वयं चलकर आते हैं। अनुवाद को भुसभरा गिद्ध नहीं, फुदकती चिड़िया बनाते हैं। फलतः उनका अनुदित काव्य भी मौलिक का सा रस प्रदान करता है। 'मूक माटी' के अध्यवसित महाकवि के रूप में वे जायसी और जयशंकर प्रसाद की कोटि में आते हैं। काव्य को समासोक्ति बनाना, उसमें अनवरत प्रतीकार्य समाविष्ट करना बिरले ही कवियों के लिए संभव होता है। विद्यासागर जी महाराज द्वारा यह विरल कवि कर्म संभव हुआ है। डा. बारेलाल जैन ने अपने सुदीर्घ अध्ययन और अध्यवसाय से एक कृती- विचारक, आचार्य, संत और कवि के जीवन, व्यक्तित्व, विचार और काव्य को अपने शोध का नाभिकीय बनाकर एक प्रशंसनीय कार्य किया है। वास्तव में इस प्रकार के जितने भी शोध कार्य हो, कम ही कहे जायेंगे। डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के हिन्दी विभाग में आचार्य कवि के कृतित्व के विभिन्न पक्षों पर तीन कार्य सम्पन्न ही चुके हैं। आचार्य विद्यासागर के कृतित्व के इतने आसंग हैं कि उन पर लगन पूर्वक शोधार्थी अपनी शोधोपाधि के लिए प्रतिष्ठा अर्जित कर सकते हैं। जैन शास्त्रों की परंपरागत
अर्हत् वचन, अप्रैल 99
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