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________________ पुस्तक समीक्षा संत काव्य परम्परा का नव्यतम छन्मेष आचार्य विद्यासागर का काव्य डॉ. बारेलाल जैन, "हिन्दी साहित्य की संत परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचार्य विद्यासागर के कृतित्व का अनुशीलन', प्रकाशक - श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन समिति, कलकत्ता, पृ. 254, मूल्य रु. 45 = 00, समीक्षक - डॉ. कान्तिकुमार जैन, सेवानिवृत्त प्राध्यापक एवं अध्यक्ष - हिन्दी विभाग, डॉ. हरिसिंह गौर वि.वि., सागर (म.प्र.) उपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर में आचार्य विद्यासागरजी जैसे तपस्वी की उपस्थिति लगभग अविश्वसनीय प्रतीत होती है। उपभोक्तावादी संस्कृति उन समस्त मूल्यों का क्षरण है जो मनुष्य के उत्कर्ष के लिये त्याग, तपस्या, परोपकार, अहिंसा और करुणादि को महत्वपूर्ण मानते हैं। अंधकार जितना गहन होता है, प्रकाश स्तम्भ की उतनी ही अधिक आवश्यकता होती है, लगता है आचार्य विद्यासागरजी जैसे संत इतिहास की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति है। आश्चर्य होता है कि वे आत्मोद्धार में संलग्न साधक मात्र नहीं है अपितु बहुतर जन - जीवन और समाज के मंगल के लिए अहर्निश समर्पित अपराजेय योद्धा हैं। योद्धा और युद्ध से हिंसा - वृत्ति का सहज ही मान होता है, किन्तु कोई योद्धा संपूर्ण भाव से अहिंसक हो सकता है और कोई युद्ध, विचारों की शुचिता और व्यक्तित्व की निष्कलंक सात्विकता से भी. लड़ा जा सकता है, आचार्य मुनि विद्यासागरजी इसके अद्वितीय दृष्टांत हैं। उनका जीवन अपनी साधना में, उनका व्यक्तित्व अपनी पारदर्शिता में, उनके विचार लोक - मंगल में कैसे समरस है, यह जानना और समझना हो तो उनका सान्निध्य, उनके प्रवचनों का श्रवण और उनके ग्रंथों का अध्ययन हमारे सम्मुख एक ऐसे लोक के द्वार उद्घाटित करता है जो पार्थिव होता हुआ भी नितान्त अपार्थिव है, लौकिक होता हुआ भी शत - प्रतिशत अलौकिक है और सामान्य होता हुआ भी अपने महत्तम अर्थों में पूर्णत: असामान्य है। डा. बारेलाल जैन ने "हिन्दी साहित्य की काव्य परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचार्य विद्यासागर के कृतित्व का अनुशीलन' शीर्षक पीएच.डी. के अपने शोध - प्रबन्ध द्वारा एक जन हितकारी और उपयोगी कार्य सम्पन्न किया। सच्ची प्रतिभा की पहिचान का एक निष्कर्ष यह भी है कि वह बहुसीमान्त स्पर्शिनी होती है और किसी एक दायरे में आबद्ध नहीं होती। महाकवि केवल कवि नहीं होता, वह चिन्तक, देशोद्धारक और युगोपकारक भी होता है, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, श्री अरविन्दो को आप किस कोटि में रखेंगे? वास्तव में जो युग - पुरुष होता है, युग की समस्याएँ उसके व्यक्तित्व में स्पंदित होती हैं, जो युग दृष्टा होता है, वह युग की समस्याओं के संघान का हरावल होता है, वह सहसा प्रकट नहीं होता, उसके पीछे एक सुदीर्घ परंपरा होती है, वह युग-युगों की साधना का नवनीत होता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी जैसे तपस्वी और तत्वज्ञ भारत की उस आर्ष परंपरा के शिखर ज्योति बिन्दु हैं जो सुदीर्घ काल से कभी मंथर भाव से कभी तीव्र वेग से भारत के लोक जीवन में निरन्तर प्रज्वलित रहे हैं। आचार्य विद्यासागर जी की एक अन्यतम विशेषता यह है कि वे कवि हैं और लोक मंगल उनके काव्य का प्राथमिक और अंतिम उद्देश्य है, वे वर्तमान जगत् के प्रदूषणों अर्हत् वचन, अप्रैल 99
SR No.526542
Book TitleArhat Vachan 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size23 MB
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