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केन्द्रित संस्कृतियों का विकास किया है। मनुष्य को अपनी इच्छाओं का सीमांकन कर भावानात्मक तथा आत्म विकास के लिये काम करना चाहिये। जैन धर्म का मानना है कि व्यक्ति को पुण्योदय से धर्म करने योग्य साधन तो मिल सकते है लेकिन बिना पुरूषार्थ धर्म नहीं हो सकता है। अत: धर्म में समय तथा साधन लगाने के निर्देश मिलते हैं। इसलिये ऐसे पुरूषार्थ करने चाहिये जिसमें कर्मों का बन्ध न हो। यह उपभोग के परिमाण से ही संभव
है।
अर्थतंत्र का स्वरूप - अर्थशास्त्र में उपभोग, उत्पादन तथा वितरण का अध्ययन होता है। व्यक्ति अधिकतम के आधार पर इन क्रियाओं को क्रियान्वित करता है। इसके प्राप्त करने के लक्ष्य में भिन्नता के कारण अलग - अलग अर्थतंत्र जैसे पूँजीवाद, साम्यवाद, सामन्तवाद आदि अस्तित्व में आये। इन सब अर्थतंत्रों में अधिक कल्याण / संतोष लक्ष्य है। लेकिन उसको प्राप्त करने की विधि (मॉडल) अलग - अलग है। जैन आगमों में भी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के संचालन के संबंध में निर्देश मिलते हैं। जैन दर्शन अल्पेच्छा और अल्पारंभ' यानि विकेन्द्रित अर्थनीति पर जोर देता है। उनका मानना है कि केन्द्रीयकरण "शोषण" की प्रवत्ति को उभारता है। शोषण समाज में हिंसा और तनाव को उत्पन्न करता है। जैन दर्शन का दिव्रत - दिशा का परिमाण, अर्थव्यवस्था के स्वालम्बन पर जोर देता है। इसके लिये आर्थिक ढाँचा अहिंसा तथा सत्य पर आधारित होना चाहिये। यह दर्शन ऐसे अर्थतंत्र के विकास की बात करता है जिसमें मनुष्य तथा प्रकृति के बीच सच्चा समन्वय हो। विकास मानवता प्रधान हो। समाज का आर्थिक विकास मानव केन्द्रित होना चाहिये। अत: अहिंसा, शान्ति, करूणा और मानवता को ध्यान में रखकर अर्थतंत्र का पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है। सन्दर्भ स्थल एवं ग्रन्थ : 1. आचार्य महाप्रज्ञ, महावीर का अर्थशास्त्र, आदर्श साहित्य संघ, चुरू, पृ. सं. 35 2. आदि पुराण 16/179 3. आचार्य महाप्रज्ञ, महावीर का अर्थशास्त्र, आदर्श साहित्य संघ, चुरु, पृ. सं. 42
देखें संदर्भ- 1 5. उपासकदशांग, सूत्र 1/38 6. उपासकदशांग, सूत्र 1/38 7. आचार्य महाप्रज्ञ, महावीर का अर्थशास्त्र, पृ. सं. 129 - 130 8. वहीं प्राप्त - 7.8.98
ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, दिनांक 18 जून' 99, शुक्रवार
प्राकृत भाषा दिवस उत्साहपूर्वक मनायें।
. - राष्ट्रसंत आचार्य विद्यानन्द
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अर्हत् वचन, अप्रैल 99