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महावीर के ये शब्द बड़े सार्थक हैं "कमाणे अहं अप्प वा बहुंवा परिगहं परिच्च इस्सामी" 1 इसमें एक ओर परिग्रह के परित्याग, विसर्जन की भावना है तो दूसरी और अर्जन की भावना है। धन के संग्रह तथा भाग को अशुभ माना गया है। इससे अशुभ कर्मों का बन्धन होता है। धन के उचित उपयोग तथा दान आदि क्रियाओं को शुभ माना गया है। इस प्रकार इसमें धन के अर्जन पर नहीं उसके भाग तथा परिग्रह पर परिमाण का विधान
है।
व्यक्ति के लिये पुरुषार्थ (कर्म) आवश्यक है अत: उसकी प्रकृति के बारे में काफी निर्देश मिलते । ग्रहस्थ के लिये पन्द्रह कर्मदानों का निषेध बताया गया है। जैसे इंगल कम्मे, वण कम्मे, फोड़ी कम्मे अर्थात जंगल जलाकर कोयले का निर्माण करने, तालाब को सुखाने, भूमि के उत्खनन आदि का निषेध किया है। इसी प्रकार व्यक्तियों को अर्थाजन करते समय पाँच बातों का ध्यान रखने के भी निर्देश हैं।
1. बंध न करना
2. बध न करना
3. छविच्छेद न करना
4. अतिभार नहीं लादना
5. भक्तपान का निषेध करना
इस प्रकार जैन दर्शन अर्थाजन में साधन की शुद्धि को मुख्य मानता है। आज का अर्थतंत्र उत्पादन की अधिकता पर इतना अधिक जोर देता है कि उत्पादन के साधन गौण हो गये हैं। अब तो वैज्ञानिकों ने ऐसे इंजेक्शन बना लिये हैं जिनके लगाने से आप गाय के स्तनों से अधिक दूध निकाल सकते हैं। आगे गाय का क्या होगा ? कितना अलपकालीन सोच है? कितना भ्रमित विकास है? लाभ के लिये हजारों ऐसी वस्तुऐं उत्पादित की जा रही हैं जिनका मानव के भौतिक, सांस्कृतिक तथा भावात्मक विकास से कोई सम्बन्ध नहीं है। जैन आगम ऐसे उत्पादन को निषेध मानता है।
उपभोग
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अर्थशास्त्र में उपभोग का अध्ययन महत्वपूर्ण है । औपचारिक अर्थशास्त्र की मान्यता है कि व्यक्ति उपभोग से प्रेरित होकर उत्पादन करता है। जैन आगम इसे नहीं मानता है। मनुष्य की इच्छा असीमित है। "इच्छा हु आगाससमा अनंतया" अर्थात इच्छाओं को दमन या नष्ट मत करो। जैन दर्शन इच्छा का संयम अर्थात सीमाकरण के निर्देश देता है। आवश्यकतानुसार उपभोग करो। उत्पादन और वस्तुओं से आवश्यकता के सृजन को निषेध करता है । इच्छाओं का परिणाम करने पर बल दिया गया है। भगवान महावीर ने कहा " इच्छाओं को संतोष से जीतो" । अग्नि में ईंधन डालकर उसे बुझाया नहीं जा सकता, वैसे ही इच्छा की पूर्ति के द्वारा इच्छाओं को संतुष्ट नहीं किया जा सकता है । इच्छा और भोग में वृद्धि भौतिक तृप्ति में योगदान कर सकती है। लेकिन सुख की प्राप्ति नहीं करा सकती है। आज पूरा अर्थतंत्र मांग के सृजन करने में लगा हुआ है। इस पर कोई विचार नहीं किया जा साता कि ये वस्तुऐं हमारे लिये उपयोगी हैं अथवा नहीं। नये नये रीति-रिवाज प्रतिपादित कर मनुष्य को उपभोग के मायाजाल में फंसा दिया जाता है। इससे वह पूरे समय अर्थाजन में लगा रहता है और वह आत्म विकास के लिये समय नहीं निकाल पाता है। ऋषियों और मुनियों अपनी इच्छाओं का परिमाण करके ही मानव अर्हत् वचन, अप्रैल 99
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