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उत्पादन के साधनों का क्षय नहीं होता है। जैन आगम में वृत्ति संसाधनों के सृजन को महत्व देती है। अत: संसाधन संकट की स्थिति की कल्पना भी नहीं की है। इस स्वरूप में उत्पादन प्रकृति के अनुरूप तथा निकट होने के कारण पर्यावरण तथा पारिस्थितिकीय असंतुलन का संकट उत्पन्न होने की स्थिति नहीं रहती है। इसके विपरीत आधुनिक अर्थतंत्र ने ऐसी उत्पादन प्रक्रिया अपनायी है जिससे सदैव संसाधन संकट का भय बना रहता है। कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो हम पर्यावरण तथा जीवों को नुकसान पहुँचाते हैं और दूसरी ओर उनके संरक्षण की योजनाओं पर करोड़ों रूपये व्यय करते हैं। जैन दर्शन इस प्रकार के उत्पादन तथा वृत्ति का निषेध करता है।
___ जैन दर्शन उत्पादन के स्वरूप में साधन की पवित्रता को आवश्यक मानता है। उत्पादन के संदर्भ में जैन आगम में तीन निर्देश मिलते हैं - 1. अहिंसप्पयाणे - हिंसक शस्त्रों का निर्माण न करना 2. असंजुताहिकरणे - शस्त्रों का संयोजन नहीं करना 3. अपावकम्मोवदेसे - पाप कर्म का, हिंसा का प्रशिक्षण न देना
ये उत्पादन के लिये महत्वपूर्ण निर्देश हैं, वृत्ति समाज के लिये आवश्यक है लेकिन यह भी आवश्यक है कि वह शस्त्रों का निर्माण न करें, न संयोजन करे और न ही उनका व्यापार करे। विश्व शान्ति का यह कितना अचक सिद्धान्त है? इसके चलते कभी युद्ध और कब्जे की संभावना नहीं रहती है। आज का विश्व पहले तो करोड़ों के संसाधन लगाकर आधुनिक से आधुनिक शस्त्रों का निर्माण करता है और फिर निशस्त्रीकरण के लिये दबाव डालता है। वास्तव में हथियारों के निर्माण पर ही प्रतिबंध आवश्यक है। जैन आगम उनके विकास और निर्माण को धर्म संगत नहीं मानता है। आज इतने खतरनाक हथियार उपलब्ध है कि कुछ ही समय में पूरे विश्व को तबाह किया जा सकता है। इस भय से तो अशान्ति तथा तनाव ही बढ़ाया जा सकता है। अर्थ उपार्जन
जैन आगम में सबके लिये कर्म अर्थात पुरूषार्थ आवश्यक बताया है। वस्तुत: कर्मवाद का सिद्धान्त पुरूषार्थ को छोड़ने के लिये नहीं अपितु कर्मों के क्षय करने के उद्देश्य से पुरूषार्थ की प्रेरणा देता है। इस प्रकार इसमें कर्मों की शुद्धता पर जोर दिया जाता । इसलिये जैन दर्शन में कर्मों को क्षय करने के उद्देश्य से श्रम करने वाले को श्रमण कहा गया है। अत: पुरूषार्थ को आवश्यक बताया गया, लेकिन धन संग्रह के लिये नहीं। .
जैन दर्शन का मानना है कि धन (सम्पत्ति) पुण्योदय या भाग्य से मिलता है। समान पुरूषार्थ (श्रम) करने पर भी व्यक्तियों को सम्पत्ति एक समान नहीं मिलती है क्योंकि इनके पुण्य अलग - अलग है। प्रबल पुण्य का उदय हो तो अल्प पुरूषार्थ से भी बहुत धन की प्राप्ति हो सकती है। लेकिन पुण्य अल्प हो तो अत्यधिक पुरूषार्थ (श्रम) करने पर भी सम्पत्ति की प्राप्ति नहीं होती है। सम्पत्ति की प्राप्ति में भाग्य (पुण्य) की प्रधानता है। लेकिन भाग्य का फल पुरूषार्थ करने पर ही मिलता है। अत: पुरूषार्थ भाग्यरूपी ताले की चाबी है। धन जैसा भाग्य होगा उसी के अनुरूप मिलेगा। इसलिये जैन दर्शन में धन के उपार्जन का निषेध नहीं है। लेकिन इसके उपयोग पर काफी निर्देश देता है। भगवान
अर्हत् वचन, अप्रैल 99