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________________ 'चाणक्यनीति' में आचार्य चाणक्य किन नीति सिद्धांतों को स्वीकार करते थे उनकी झलक उपलब्ध है। चाणक्य जैन सिद्धांतों व शास्त्रों के निरंतर अध्ययन से स्याद्वाद व अनेकान्त से पूर्णत: परिचित थे और उन्होंने जैन आदर्शों को राजनीतिक व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण स्थान दिया। तभी तो पुरोहित को उन्होंने राज्य का अंग नहीं माना। हिंसा, दान, माक्ष, धर्म आदि पर आचार्य ने महत्वपूर्ण नीति निर्देशक सिद्धांत समाज को दिये। कुछ का अवलोकन हम यहाँ करते हैं - मांस भक्ष्ये: सुरापाने: मूखैश्चाक्षर वर्जितः । पशुभिः पुरुषाकारै राक्रान्ता हि मेदिनी॥' अर्थ : मांस खाने वाले, शराब पीने वाले, व निरक्षर व्यक्ति पशु समान हैं और वे पृथ्वी पर भार हैं। क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रियाः। न क्षीयते पात्रे दानमभयं सर्वदेहिनाम्।' अर्थ : सभी प्रकार के दान, यज्ञ, होम तथा बलिकर्म नष्ट हो जाते हैं परन्तु सुपात्र को दिया गया दान तथा सभी जीवों को दिया गया अभयदान न कभी व्यर्थ जाता है न नष्ट होता है। अधना: धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः। मानवा: स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः॥ अर्थ : धनहीन धन की इच्छा करते हैं, चार पैर वाले पशु वाणी की इच्छा करते हैं, मनुष्य स्वर्गसुख की इच्छा करते हैं किन्तु देवता मोक्ष की इच्छा करते हैं। चला लक्ष्मीश्चला: प्राणाश्चले जीवित मन्दिरे। चलाऽचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चलः॥" अर्थ : लक्ष्मी चलायमान है, प्राण चलायमान है (यहां सब कुछ चलायमान है), एक अकेला धर्म है जो चलायमान नहीं है। दानेन प्राणिन्तु कङ्कणेन, स्नानेन शुद्धिन तु चन्दनेन। ___ मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन, ज्ञानेन मुक्तिनतु मण्डनेन।' अर्थ : हाथों की सच्ची शोभा आभूषण पहनने से नहीं, दान देने से होती है। शरीर की वास्तविक शुद्धि स्नान करने से होती है, चन्दन का लेप लगाने से नहीं। मनुष्य को सच्चा सुख मान सम्मान प्राप्त करने से होता है स्वादिष्ट भोजन करने से नहीं। इसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति भी ज्ञान से होती है, छापा, तिलक आदि बाहरी आडंबरों से नहीं। एक वृक्षसमारूढ़ा नानाव: विहङ्गमाः। प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिवेदना॥ अर्थ : जिस तरह रात्रि होने पर नाना प्रकार के पक्षी एक ही वृक्ष पर विश्राम करते हैं और प्रात:काल दसों दिशाओं की ओर उड़ जाते हैं इसमें दु:ख कैसा? उत्पत्ति और मृत्यु, सयोग और वियोग तो होता रहता है उसका दु:ख कैसा? अधीत्येमर्थशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः। धर्मोपदेश विख्यातं कार्याकार्य शुभाशुभम्॥ अर्थ : समझदार व्यक्ति शास्त्र को पढ़कर जान जाता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। धर्म का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है जिससे वह नीतिगत अर्हत् वचन, अप्रैल 99 27
SR No.526542
Book TitleArhat Vachan 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year1999
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size23 MB
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