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'पृथिव्यां लाभे पालने व यावन्त्यर्थशास्त्रिणि पूर्वाचार्य,
प्रस्थापितानि प्रायशस्तानि संहत्यैकमिदमर्थ शास्त्रं कृतम।' अर्थ - प्राचीन आचार्यों ने राज्य की प्राप्ति की, और उसकी सुरक्षा से सम्बन्धित जितने भी राजनीतिशास्त्रों की रचना की है उन सबके सार संग्रह करके मैंने अपना अर्थशास्त्र लिखा है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र से अलग किये गये 'चाणक्य नीति' के सूत्र जैन सिद्धांत के प्रायोगिक स्वरूप हैं।
चाणक्य उभट विद्वान थे। उन्होंने वेद पुराण तथा आर्थिक विषयों पर गहन अध्ययन किया था। राजनीतिशास्त्र के तो वे संभवत: ज्ञात सर्वप्रथम अधिकृत प्रवक्ता थे। उन्होंने जो कुछ किया और कहा वह नीति और न्याय की परिभाषा के बीच किया। वे युद्ध, शासन व राजकीय तंत्रों के व्यवस्थापन के व्यावहारिक रूप थे। श्री रामशरण शर्मा के इस मत से सहमत होना पड़ेगा कि बुद्ध के युग में कौशल और मगध जैसे सुसंगठित राज्यों के उत्थान के बाद सबसे पहले कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में राज्य को सात अंगों से युक्त संस्था बतलाया गया। परवर्ती ग्रन्थों में इन अंगों के पारस्परिक संबंधों के बारे में 'अर्थशास्त्र' से कुछ भिन्न बातें कही गई हैं, लेकिन कौटिल्य की परिभाषा में उन्होंने कोई महत्व का परिवर्तन नहीं किया है।
कौटिल्य ने जिन सात अंगों का उल्लेख किया है वे हैं : स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड और मित्र। इनका विवेचन सांगोपांग और क्रमबद्ध है जो अन्यत्र दुर्लभ है।
श्री रामशरण शर्मा का विचार है कि राज्य का उपरोक्त सिद्धांत ब्राम्हण विचारधारा की उपज है। पर पुरोहित को, जिसे हम उत्तरवैदिक राज्य व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते देखते हैं, तथा अर्थशास्त्र और कौटिल्य के ग्रंथों में भी जिनका प्रभावी स्थान है, राज्य के अंगों में शामिल नहीं किया गया है। इसे विद्वानों ने कौटिल्य का विशेष योगदान माना है। संभवत: जैन चिंतन इसका कारण रहा हो।
यहाँ यह संकेत उपलब्ध हैं कि कौटिल्य के सामने पुरोहित विहीन शासन की व्यवस्था का उपयोगी चित्र उपस्थित था या उनके पास ऐसे शास्त्रीय संदर्भ उपलब्ध थे जिनमें पुरोहित प्रभावित शासन के दष्परिणामों का अनुभव था। कौटिल्य ने अपने ग्रंथ में अनाम आचार्यों के मत उदधृत किये हैं अर्थात ऐसे शास्त्र उनके पास थे। 'पुरोहित' को सप्तांग में न रखना धार्मिक सहिष्णुता को राज्य का स्वीकार्य सिद्धांत बनाना है। चाणक्य काल में बौद्ध, जैन और ब्राम्हण धर्म आमने सामने निश्चयपूर्वक रहे होंगे और धार्मिक उन्माद से राष्ट्र को बचाये रखना राजनीति की प्रथम आवश्यकता थी। आचार्य भद्रबाहु, चंद्रगुप्त व चाणक्य जैन थे। चाणक्य के सामने श्रमण संस्कृति के अभ्युदय व पराभव का लेखा - जोखा होगा, वैदिक संस्कृति के उदय, विस्तार व अंतर्विग्रहों तथा कर्मकांडों का लेखा-जोखा होगा। साथ ही विदेशी आक्रमणों के बीच भारतीय साम्राज्य के उदय की संभावित परिस्थितियों का पूर्वानुमान होगा। इसने नीति सम्मत व्यवस्था को मूर्त रूप दिया। यह शास्त्रों और पुराणों के अध्ययन का स्वाभाविक परिणाम था। स्वयं आचार्य चाणक्य ने इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
"प्रणम्य शिरसा देवं त्रेलौक्याधिपतिं प्रभुम।
नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीति समुच्चयम्॥ अर्थ - मैं तीनों लोकों के स्वामी भगवान के चरणों को शीष नवाकर प्रणाम करता हूँ, तदुपरांत विभिन्न शास्त्रों से एकत्रित राजनीति के सिद्धांतों का उल्लेख करता हूँ। 26
अर्हत् वचन, अप्रैल 99