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SHRUTSAGAR
प्रभुजी न बोल्या, पापि तहां रुठ, कानमां खीला घाल्या तिणिं दुठ । त्रिपृष्ट हरिना भवनुं जे कर्म, उदयें इहां आव्युं जांणो ए मर्म
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खरक सिद्धारथ पहुता ते सर्ग, सह्या ए वीरे उपसर्ग - वर्ग । कर्म खपेवा तप कर्यो जेह, कहुं विगतिथी सुणों हवे तेह
मध्यम अपापा सिद्धारथ गेहे, आव्या तिहां दिठा सशल्य देहिं । आवेंतिणिं वनमां वैद्य वणिक, कांनथी खीला काढ्या तहकीक
बि दोढमासी मासी तप बार, बिहोत्तेर पासखमण उदार । भद्र माहाभद्र सर्वतोभद्र, प्रतिमा दिन दुग चउ दश करें भद्र
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पूरण छमासी तप एकवार, दिन पांचि न्युन बीजो हितकार । चमासी नवनिं तप बि त्रीमासी, बिं अढीमासीं छ वलि बिंमासी
दुगत गुणती छट्ठ प्रसिद्ध, अट्ठम बार जगगुरु कीध । पारणां त्रिणसें एगुणपंचास, कीधो तप निर्जल जगगुरु खास
बार वरसनें साढा छमास, छद्यस्थ वीचर्या वीर निरास । हवें प्रभु पामें केवलनांण, थिर चित्ते सुणयो तेह सुजांण
निरावरणी था, हणीओ मोह नरेश ।
गणधर संघ ने मोक्षवली, सुणो आगलि सुविसेस
November-2015
भिका गांम ऋजुवालिका तीर, सालरुख हेठलि ध्यानें वडवीर । प्रथम बें पाईया शुक्लध्यांन, वैशाख सुदि दशमें केवलज्ञांन
दोहरो
प्रणमी सर्वज्ञ मोक्षमंडाण, अधिकार चोथो कहुं सुजांण । केवल पांमी अपापा स्वामी, महसेन वनमां आव्या गुणधांमी
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सोमिल सदनिं विप्र बहु मिलीया, तेहमां एकादश विद्याना बलिया । चरम शरिरी एकादश तेह, वीरनिं प्रणमी लहिंसिं दुख छेह
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इति श्री माहावीर पुरुषोत्तम स्तवनारुप लोकभाषया सिल्लोके श्री वीरविहार उपसर्ग केवलज्ञानोत्पति वर्णनो नांम तृत्तियोधिकार समाप्त ॥ ३॥
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