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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 17 बहुल विप्रनें घरि प्रभु जायें, छठ्ठनुं पारणुं परमान्निं (थी) थाय । पंच दिव्य सुरिं परगट कीधा, तेहथी मनोरथ तेहना सिद्धा नारं संताप्यो ब्राह्मण आवें, निज दुख वितक कहें सभावें । दांन संवत्सरी वरसी जगनाथ, सुरपति सरिखा कीधा अनाथ पुष्कल जलधारा मही सवि पूरी, तोहें पणि तुंबी रही अधुरी । तेहनें पुरवा कहो स्यो प्रयास, थायें जगनायक पूरो मुझ आस दीन जांणिने वस्त्रार्द्ध आयें, दयानिधि तस दारिद्र कापें । वस्त्रा वलग्युं कंटाले वृक्ष, लेई वली चाल्यो विप्र प्रत्यक्ष संवत्सर साधिक वस्त्रना धारी, वलति अचेलक वस्त्र निवारी । दूइजंत तापस आश्रमिं आवें, पूर्व परिचयथी अधिक मन भावें विचरी चोमासु तिहां पधार्या, अप्रीति जांणी तिहांथी सधार्या । अभिग्रह ग्रहीनिं अस्थिक ग्रांम, आव्या शूलपाणी यक्ष आश्राम Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हस्ति पिशाच सर्पनां रूप, करि उपसर्ग कीधा विरुप । शिर', कान' नाक' चक्षु ने दंत', पिठ े नख वेयणें न चाल्या भदंत . ४ शूलपाणी तिहां प्रतिबोध पावें, मोराक सन्निवेशें प्रभु आवे । आछंदक तापस तिहां घरबारी, रुठो सिद्धारथ ईजत उतारी अप्रीति जांणी कर्यो विहार, आवे श्वेतंबीइं जगत आधार । कनकखल तापस आश्रमिं जाय, चंडकोसीयो जिहां अहिराय चंडकोसिओ देखी जिनराय, विषजाला मुंकें दुरित न थाय ! क्रोध धरीनें डसीयो प्रभुचरण, रुधिर देखीनें चिंतें स्यों वरण वीरप्रभु बोल्या रेरे अबुझ, चंडकोसिआ बुज्झह बुज्झ । जात संभारी अणसण कीधुं, सर्ग सहसार वेगें तिणिं लीधुं गंगा उतरतां सीहनो जीव, देव उपसर्ग करिं अतीव । कंबल-संबल निवारि तेह, नागकुंमार देवता जेह For Private and Personal Use Only November-2015 ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ 11811 ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ।।१४।। ॥१५॥ ॥१६॥
SR No.525304
Book TitleShrutsagar 2015 11 Volume 01 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiren K Doshi
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2015
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size4 MB
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