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APRIL-2015
SHRUTSAGAR
अलख नी(निरंजन रूप अभेद थिरता करी, रह्या लोकाग्रह भाग के जोवे सहना चरी। गती(ति)-आगत(ति)ना भाव सहु जि(जी)वना लहो, सुक्षम-बादर भेद के त्रसना तुम्हे कहो ॥३॥ तुमथी अजांणी वस्तु नहिं त्री(त्रिीलोकमां, निरखो भाव अभाव के जांणो स्तोकमां।
आदि अनागत वर्ते जे जग-जीवनी, लोकालोक प्रकाश के साहिब धणी॥४॥ भवोदधितारण नाव बेसारी तारीइं. ज(य)स गुणवार्धि अपार के क्रिया सारीये। सी(शि)वमंदिरमां बेठा कहो कुण जांणसे, जो प्रभु तारो आज तो सहुई पछांणसे ।।५।। सरणे आव्या स्वामी तार्या केईनें, अविनाशी थई बेंठा खजानो लेईने। तार्या आपे अनेक कें अम वारे नहिं, कोसरि करता राज के अम्हे निसुण्यां कहिं ॥६॥ एक वाहलो अलखामणो साहिब मत करो, वहिरो करतां राज के समता नवि वरो। उत्तम मध्यम मेह न जोवें भु(भूमका, गरूयां नांणइं गरव के मनमा खुंमका ॥७॥ सेवक (चरणे) आव्या नजीक के तेह न उवेखीइ, ही(हि)त करीने चित्तचुंप के सेवक लेखीइ। गुनहो होइ तो प्रभुजी मुझनें भाखीइ, चाकरी मांहिं चु(चूक होई तो दाखीइ ।।८॥ कु(कू)ड-कपटना छी(छि)द्र अछइ मुझमां घणा, जोतां तो नवि पु(पू)रवे अहो सेवक तणा।
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१.करकसर
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