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श्रुतसागर
अक्तूबर-२०१४ या श्रमण अथवा भारतीय ऐसी किसी भी परम्परा में अपना परिचय देने का एक अलग ही आदर्श था. परिचय इस प्रकार दिया जाता कि उसके अंदर आवश्यक सभी जानने जैसी सूचनाएँ मिल जाती.
पुष्पिका में क्वचित् ही ऐसा मिलता कि मात्र अपने नाम का ही उल्लेख हो. इसका मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि एक ही नाम के अनेक लोग होते हैं तो कौन किस गच्छ के, किसके शिष्य, किस जाति के किसके पुत्र-प्रपौत, कहाँ के रहनेवाले आदि सूचनाएँ एक में मिलकर भ्रामक न बन जाये. इस हेतु से अमुक गच्छे, अमुकान्वये, आचार्यप्रवर.....तच्छिष्य, प्रशिष्य, तदन्तेवासी, गुरुपादपा गेन अमुकमुनिनालेखि. इसी तरह तत्पौत्र, तत्पुत्र इत्यादि संबंधसूचक शब्दों का उपयोग करते हुए अपने नाम का उल्लेख करते हैं.
प्रतिलेखन पुष्पिकागत इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्ति, नामों को यूं ही न छोड़कर उसे उसी तरह संबंध बतलाते हुए, उन संबंधों को योग्य संयोजन करते हुए इस पद्धति के उपयोग से ऐसे प्रत्येक व्यक्ति नाम को संयोजन करके रखा जाता है. इसे संक्षेप में गुरुपितृपरंपरा कहते हैं. ___यद्यपि वर्तमान में लम्बी गुरुपितृपरंपरा की सूचना संयोजित नहीं की जाती है. उक्त गुरुपरंपरा का उदाहरण इस रूप रूप द्रष्टव्य है-प्रत संख्या-१४ में प्रतिलेखक मुनि रंगसौभाग्य है, इनके गुरु पंन्यास खुशालसौभाग्य, इनके गुरु उपाध्याय सुंदरसौभाग्य एवं इनके गुरु रंगसौभाग्य की परंपरा का उल्लेख किया गया है.
गुरुभ्राता-एक ही गुरु से जो-जो व्यक्ति दीक्षा लेते हैं,तो उस गुरु के जितने शिष्य होते हैं वे गुरुभ्राता के रूप से जाने जाते हैं. उदाहरण के रूप में प्रत संख्या६३३८० की प्रतिलेखन पुष्पिका में अमृतविजय के शिष्य देवेन्द्रविजय व जयविजय हैं. अतः इन दोनों के परस्पर संबंध का उल्लेख गुरुभ्राता के रूप मिलता है.
व्याख्याने पठित-प्रतिलेखक द्वारा लिखित प्रत जिस साधुभगवन्त के व्याख्यान में पढी गयी हो, उस विद्वान प्रकार का उल्लेख यहाँ करते हैं. प्रत लिखवाने के बाद गुरुभक्ति व श्रुतनिष्ठा से गुरुभगवंत को व्याख्यान में पढने हेतु निवेदन किया गया हो तथा गुरुभगवंत के द्वारा व्याख्यान में वही प्रत उपयोग हुई हो तो उसे प्रतिलेखक अपनी पुष्पिका में जिस प्रकार “व्याख्याने पठितम्” का उल्लेख करते हैं, उसी शब्द को यथावत् ग्रहण करते हुए वह नाम भी संग्रहित किया हुआ होता है.
(क्रमशः)
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