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SHRUTSAGAR
OCTOBER-2014 जैसे कि-शिष्य-प्रशिष्य, मुमुक्षु, श्रावक, श्राविका राजा आदि. इसे बताने के लिये व्यक्तिविशेष का नाम लेते हुए पठनार्थे, वाचनार्थे, अध्ययनार्थे आदि पढने संबंधी शब्दार्थवाले पर्याय का उल्लेख करता है. उदाहरण के लिए प्रतसंख्या-२६ कल्पसूत्र को देखा जा सकता है कि इसमें प्रतिलेखक पंन्यास श्री निधानविजयजी ने अपने शिष्य मुनि रूपविजय के लिये प्रत लिखा है.
प्रेरक-प्रतिलेखक को लिखने की प्रेरणा जिस व्यक्ति से मिलती है, उस व्यक्ति का नाम लिखा जाता है. प्रतिलेखक के मित्र, गुरु, शिष्य, श्रावक आदि कोई भी व्यक्ति प्रेरकरूप हो सकते हैं. उदाहरणार्थ प्रत संख्या-२६८९७ में उल्लिखित पुष्पिका के अनुसार श्रावक भगवानदास के आग्रह व प्रेरणा से वाराणसी में आचार्य विजयधर्मसूरि ने इस प्रत को लिखा है.
उपदेशेन-हस्तप्रत लिखने अथवा लिखवाने के लिये जिस गुरु का उपदेश होता है, उसे हस्तप्रत लेखन उपदेशक कहा जाता है. समय-समय पर धर्मगुरुओं के द्वारा वे हस्तप्रत भंडार श्रुतसंपदासम्पन्न भंडार रहे, हर प्रकार के साहित्य उपलब्ध हो सकें, अपेक्षानुसार एक ग्रंथ की एकाधिक प्रतियाँ हों आदि आशय से श्रीसंघ को या श्रुतभक्तों को हस्तप्रत लिखवाने हेतु उपदेश दिया जाता था.
प्रतिलेखक स्पष्ट रूप से उन आचार्य आदि का प्रतिलेखन पुष्पिका में उल्लेख करते है. ज्ञानमंदिर की संगणकीय तकनीकी व्यवस्था में उपदेशेन विकल्प के द्वारा अपेक्षित गुरुभगवंत के उपदेश से लिखवायी गयी प्रतों का पता लग सकता है. उदाहरणार्थ प्रत संख्या-१०९९१आचारांगसूत्र की प्रतिलेखन पुष्पिका में इस प्रत हेतु अंचलगच्छीय आचार्य श्री धर्ममूर्तिसूरि के उपदेश से लिखी जाने का उल्लेख मिलता है.
गुरुपितृपरंपरा-हस्तप्रत प्रतिलेखन पुष्पिका में विद्वानों की जो परम्परा मिलती है, उसे दर्शाने के लिये आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में संगणकीय तकनीकी पद्धति व ग्रंथालयीय नियम अन्तर्गत इस प्रकार का सांकेतिक/काल्पनिक विद्वान प्रकार बनाया गया है. ताकि विद्वान की गुरु या पितृपरंपरा संबंधी जो विवरण उपलब्ध होता हो उसका संग्रहण किया जा सके. परंपरागत यह प्रणाली रही है कि परिचय देते समय पहले गच्छ, दादा गुरु, आदि दीक्षागुरु तथा बाद में लघुता-सरलतापूर्वक अपना नाम बताते हैं, हस्तप्रतों में श्रमणपरम्परा की ऐसी रीति देखी जाती है.
गृहस्थों में भी ज्ञाति, ग्रोत्र, पितामह, पिता इसके बाद अपना नाम लेते हैं. वैदिक
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