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श्रुतसागर
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शिष्य मुनि कानजी ने प्रतिसंशोधन किया है.
गच्छाधिपति हस्तप्रत का लेखन कार्य जिन गच्छाधिपति के धर्मराज्य में किया गया हो,उन गच्छाधिपति श्री का उल्लेख प्रतिलेखक प्रतिलेखन पुष्पिका में करता है. उदाहरण के लिये द्रष्टव्य है प्रत संख्या ५२११९ धर्मोपदेशशतक- सटीक प्रत की प्रतिलेखन पुष्पिका में उल्लेख इस प्रकार है- “संवत् १६६१वर्षे पौषासितपंचम्यां शनौ श्रीबृहत्खरतरगच्छेश्वर युगप्रधान श्रीजिनचंद्रसूरि विजयराज्ये पं. लब्धिकल्लोलगणिनालेखि स्वशिष्य पं. गंगदासमुनि वाचनार्थे जगत्तारिणीमध्ये” अतः इस पुष्पिका से समझ सकते हैं कि गच्छाधिपति युगप्रधान आचार्य श्रीजिनचंद्रसूरि के विजयराज्य (धर्मराज्य) में यह प्रत लिखी गयी है.
अक्तूबर २०१४
राज्यकाल - जिस राजा, महाराजा व बादशाह के शासनकाल में प्रत लिखी गयी हो. उसका उल्लेख कुछ प्रतिलेखक अपनी प्रतिलेखन पुष्पिका में करता है. ऐतिहासिक दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण सूचना होती है.
जैसे कि प्रतसंख्या - ५५६९७ निर्घटुनाममाला की प्रतिलेखन पुष्पिका में प्रतिलेखक पंडित धीरसागर के द्वारा मेडतानगर में संवत् १७८० में राजा अजीतसिंघजी के राज्यकाल में प्रत लिखी जाने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है. प्रत में इस प्रकार उल्लेख मिलता है- “लिखितवान् पं. धीरसागरः श्रीमेडतानगरे संवत् १७८० वर्षे शाके १६४५ प्रवर्त्तमाने चैत्रमासे शुक्लपक्षे १३ तिथौ अर्कवासरे माहराज श्रीअजीतसिंघजी राज्ये ॥ श्री | श्री ||” इससे उस समय में प्रतिलेखक व राजा दोनों की विद्यमानता का 1 भी प्रमाण मिलता है.
उन दोनो की विद्यमानता से लिखी गयी प्रत के लेखनकाल की विश्वसनीयता भी प्रमाणित हो जाता है. यहाँ धर्मराजय व विजयराज्य दोनों में भेद को स्पष्ट किया जाता है कि धर्मराज्य उसे कहते हैं कि जिस गच्छ के गच्छाधिपति के प्रवर्त्तमान धर्मशासन काल में प्रत लिखी गयी हो उसे धर्मराज्य के रूप में जाना जाता है, हस्तप्रतों में प्राप्त प्रतिलेखन पुष्पिका में भी क्वचित् 'विजयिनि धर्मराज्ये, व 'विजयराज्ये' शब्द का उल्लेख मिलता है. राज्यकाल हेतु देश/प्रदेश / के प्रशासनिक राज्य शासन काल अन्तर्गत जिस राजा, महाराजा व बादशाह ( पातिशाह) आदि की विद्यमानता हो उसके लिये राज्ये रूप में समझा जाता है.
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पठनार्थे- इसके अन्तर्गत प्रतिलेखक जिस किसी व्यक्ति को पढने के निमित्त से प्रत लिखता है, उसका नामोल्लेख करता है. वह व्यक्ति कोई भी हो सकता है.