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श्रुतसागर
अक्तूबर-२०१४ प्रत-पोथी आदान-प्रदान में सावधानी पर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं कि
लेखनी पुस्तिका रामा, परहस्तेगता गता।
कदाचित् पुनरायाता, नष्टा भ्रष्टा च लुंचिता ॥ प्रतिलेखक इस प्रकार के विविध भावपरक उद्गारों के द्वारा वाचक से निवेदन करता है. प्रतिलेखक की लेखनशैली तथा इनके उद्गार, निखालसता, श्रुतसमर्पित भावना आदि के बारे में उदाहरणपूर्वक लिखा जाय तो वह अपने आप में एक पुस्तकरूप बन जायेगा. यहाँ तो मात्र संक्षेप में प्रतिलेखक द्वारा लिखने की शैली का परिचय दिया गया है. एक बात है कि हस्तप्रत की नियत व आदर्श लेखन पद्धति होते हुए भी देश-काल-पाल, परंपरा आदि कारणों से लेखन शैली में भाँति-भाँति के लेखन आचार-व्यवहार देखने को मिलते हैं. __ प्रतिलेखक प्रतिलेखन पुष्पिका में भाषा अपनी रुचि व मति के अनुसार संस्कृत, देशी आदि प्रयुक्त करते हैं. प्रतिलेखकों की सहज व सरल भाषा तो कभी-कभी पढते हुए बड़ा आनंद होता है साथ में विस्मय भी होता है कि वे धन्य हैं, जो अपने लेखन में अपनी वास्तविकता को स्वीकारने से हिचकते नहीं. कुछेक बातें जो याद हैं वे इस प्रकार हैं-शीघ्रगत्या लिखितम्, शारदेन्दुप्रभायां लिखितम् आदि. एक तरह से देखें तो हस्तप्रत इतिहास का दर्पण है, संभावनाओं का समंदर है, ज्ञान की गंगा है. यूं कहें तो इसमें क्या नहीं है? ग्रंथेस्मिन् किन्न विद्यते!
अंत में सम्पूर्णमलिखत् श्रीशांतिनाथ प्रसादात्, श्रीपार्श्वनाथ प्रसादात्. महावीरस्वामी सहाय छै. वाच्यमानं चिरं नन्द्यात्. शुभमस्तु लेखकपाठकयोः. कल्याणमस्तु, इत्यादि.
प्रतिलेखन पुष्पिका में निम्न प्रकारों से विद्वानों एवं व्यक्तियों का उल्लेख होता है, जैसे कि___ आदर्श प्रतिलेखक-मूल रचना की सर्वप्रथम प्रति लिखनेवाला वह आदर्श प्रतिलेखक कहा जाता है. यहाँ तो इन्हें रचनासम्बद्ध विद्वान प्रकार की सूचि में रखा गया है किन्तु सर्वप्रथम प्रत लिखने के कारण उस प्रत के प्रतिलेखक तो हुए ही. वस्तुतः इनके द्वारा लिखी प्रत महत्ता की दृष्टि से दुर्लभ व मूल्यवान होती है. कारण कि वह एकमाल प्रति होती है. वह प्रत शुद्धप्राय होती है.
संपादन-संशोधन की दृष्टि में वह प्रत अद्वितीय सिद्ध होती है. वह प्रत रचना
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