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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 24 OCTOBER-2014 के काल की प्रत होती है. एक अनुमान से यह भी कहा जा सकता है कि वह प्रत रचनाकार या अन्य विद्वानों द्वारा संशोधित होती है. इस कक्षा के प्रतिलेखक अन्य लहियाओं की भाँति मात्र नकल करनेवाले नहीं होते बल्कि रचनाकार की कृति को सर्वप्रथम लिपिबद्ध करके ग्रंथारूढ करते हैं. इस तरह वह कृति तथा वह प्रति पहली वार लोकसम्मुख आती है. चूंकि प्रथमादर्श लेखक का उल्लेख रचना प्रशस्ति में ही होता है, अतः उसकी सूचना कृतिप्रशस्ति में ही संलग्न होती है. फिर भी यदि प्रथमादर्श लेखक के हाथों से लिखित प्रत ही साक्षात् ज्ञानभंडार में हो तो उसका उल्लेख प्रतिलेखक के प्रत के रूप में होस है. एक ही कृति प्रतिलेखक भिन्न होने से रचना तो वही होगी किन्तु प्रतिलेखन पुष्पिका बदल जायेगी, लेकिन प्रथमादर्श प्रतिलेखक की सूचना रचना प्रशस्ति का अविभाज्य अंग होने से लेखक होते हुए भी वह सूचना नहीं बदलती है. अर्थात् रचनाकार प्रदत्त सूचना की भाँति ही आदर्श प्रतिलेखक की सूचना भी उस रचना प्रशस्ति के तुरंत बाद ही प्रथमादर्श प्रति लिखने की सूचना के साथ उसकी कड़ी बन जाती है. कारण कि कृति के कर्ता की भाँति उस कृति का दूसरा कोई प्रथमादर्श प्रतिलेखक नहीं हो सकता. उदाहरण के लिये संवत् ११२९ में श्रावक दोहडि श्रेष्ठि द्वारा प्रथमादर्श रूप में लिखित व नेमिचंद्रसूरि रचित उत्तराध्ययन की सुखबोधाटीका, आचार्य जिनलाभसूरि रचित आत्मप्रबोध ग्रंथ जिसके प्रथमादर्श प्रतिलेखक व संशोधक दोनों उपाध्याय क्षमाकल्याणकजी है. देखें इस कृति की प्रशस्ति-प्रथमादर्शे लेखि, क्षमादिकल्याणसाधुना श्रीमान् । संशोधितोऽपि सोऽयं, ग्रंथः सद्बोधभक्तिभृता ॥ व्यवसाय व आजीविकालक्षी प्रतिलेखक-पारिश्रमिक राशि लेकर प्रत लिखना, अन्य ग्राम-नगर में जाकर प्रत लिखना, प्रत लिखकर विक्रय करना, जिन्हें प्रायः लहिया शब्द से जाना जाता है.उदाहरण तौर पर स्थानीय ज्ञानभंडार में प्रतसंख्या ६०४२५ में-लिपिकृतं पंडित नारायणचंद्र व्यास लि० २/चुकती पाया। पठनार्थं ऋषि गोकुलचंद्रजी विजयगच्छ का हाल मुकाम अजीमगंज. दूसरा उदाहरण प्रतसंख्या-६०४६८ चितसंभुति रास की प्रतिलेखन पुष्पिकामें-वारैया ताराचंद राइचंद श्रीनवानगरवालाने कोरी ४५पीस्तालीस लखामणीनी लइ आ रास लखी आप्यो छे. अध्यात्मलक्षी/विद्याव्यसनी प्रतिलेखक-श्रुतभक्ति से ज्ञान संपदा को टिकाए रखने हेतु लिखना, ज्ञानार्जन हेतु लिखना, अपने पास प्रति न होने पर औरों से लेकर For Private and Personal Use Only
SR No.525294
Book TitleShrutsagar 2014 10 Volume 01 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai L Shah
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2014
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size6 MB
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