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SHRUTSAGAR
OCTOBER 2014 किस हस्तप्रत में प्रतिलेखकादि कितने विद्वान उपलब्ध हैं. उक्त विकल्पों को मात्र एक नजर देखते ही प्रतिलेखकादि संबंधित अपेक्षित जानकारी शीघ्र मिल जायेगी. ___ प्रतिलेखक की प्रत लिखने की पद्धति-जिस प्रकार रचयिता कृति निर्विघ्नतापूर्वक संपूर्ण हो जाए इस हेतु अपने गुरुदेव या इष्टदेव को स्मरण/वंदनपूर्वक मंगलाचरण करते हैं, उसी प्रकार अधिकांश प्रतिलेखक भी बाधारहित लेखन कार्य पूर्ण हो जाए इसके लिये प्रत लिखने के पहले ही मंगलसूचक चिह्न अंकित करते हैं. जिसे लोग भले मिंडु, ६० भले मिंडी के नाम से भी जानते है. इसके बाद सद्गुरुभ्यो नमः, ऐं नमः, अहँ नमः, गणेशाय नमः आदि में से अपनी अभिरुचि व श्रद्धा के अनुसार यहाँ अपने देव-गुरु का स्मरण करते हैं. ___कहीं मात्र भले मिंडी और कहीं तो मात्र दो दंड (11) मंगलाचरण के रूप में देकर लेखनकार्य आरंभ किया हुआ देखने को मिलता है. लेखन प्रारंभ करते समय भले मिंडी मंगलसूचक चिह्न एवं लेखनकार्य समाप्त होने पर पूर्णतासूचक पूर्णकुंभ के आकार का (ब) जैसा चिह्न लिखा हुआ मिलता है. कालान्तर में यही चिह्न ॥॥॥ब इस रूप में अभिप्रेत होने लगा. यदि प्रत के अंदर किसी अध्याय प्रकार वाले भाग का आदि/अंत हो, नयी कृति, नया विषय, पेटाकृति हो तो भी उक्त पद्धति का अमल किया जाता है.
प्रतिलेखक की लेखनशैली तथा इनके उद्गार-प्रतलेखन कार्य संपूर्ण होने पर प्रतिलेखक अपने श्रमसाध्य कार्य हेतु भाँति-भाँति के उद्गार भी प्रकट करते हैं. उदाहरण तौर पर कुछेक उद्गार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है... कभी-कभी तो अपना पल्लू झाड़ते हुए भी दोषमुक्ति हेतु निवेदन करते हैं कि
यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा, तादृशं लिखितं मया।
यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ लेखन काल में अपने कष्टों का वर्णन करते हुए भी कहते हैं कि
बद्धमुष्टि कटिग्रीवा, अधोदृष्टिरधोमुखम्।
कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ कभी ग्रंथ सुरक्षा हेतु निवेदन करते हैं कि
उदकानलचौरेभ्यो मूषिकेभ्यो विशेषतः। कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥
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