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श्रुतसागर - २६
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जा सकता है कि विक्रमशिला का एक छात्रावास तो 'तिवेट भवन' के नाम से ही जाना जाता था । आठ हजार विद्यार्थी एक-साथ बैठ सकें ऐसा विशाल सभागार इस संस्था का गौरव था ।
नालन्दा की तरह ही इसके चारों ओर एक बड़ा परकोटा था; जिसके छह प्रवेशद्वार थे। इन सभी प्रवेशद्वारों पर एक-एक विद्वान् आचार्य की देख-रेख रहती थी । ये छह आचार्य और विद्यापीठ के प्रधान आचार्य मिलकर कुल सात समर्थ - पण्डित विक्रमशिला का प्रशासन संभालते थे । यहाँ भी नालन्दा जैसी ही प्रवेश प्रक्रिया थी ।
वलभी विद्यापीठ :
नाशिक होते हुए मालवा जाते समय ह्वेनसांग ने सौराष्ट्र में हर्ष के जमाई मैत्रकवंशीय ध्रुवसेन की राजधानी वलभी में प्रवेश किया। ध्रुवसेन ने भी सम्राट अशोक की तरह बौद्ध धर्म स्वीकार किया था । हर्ष की पञ्चवर्षीय परिषद् की तरह वलभी में भी एक बड़ा मेला भरता था। उस मेले में विद्वान् पण्डितों को खुले हाथों दान दिया जाता था । ह्वेनसांग के एक शिष्य दुई-ली ने उस समय के गुजरात की समृद्धि का वर्णन करते हुए लिखा है कि इस राज्य में दूर-दूर के मुलकों से आकर बसी हुई बंजारों की पोलें (बस्तियाँ) मीलों तक फैली हुई दिखाई पडती हैं, जिनके पास अथाह सोना जवाहरात है। पच्चीस लाख तोला सोना-चाँदी से भी अधिक धन जिनके पास है, ऐसे अनेकों कुटुम्ब - परिवार यहाँ निवास करते हैं।
वलभी में भी नालन्दा जैसी ही उच्च शिक्षण व्यवस्था थी । यहाँ जैन-धर्मदर्शन एवं न्याय - विद्या का विशेष अध्ययन कराया जाता था।
काँची विद्यापीठ :
जिस प्रकार तक्षशिला और नालन्दा उत्तर भारत के विद्यास्तम्भ थे उसी प्रकार काँची विद्यापीठ दक्षिण भारत का महत्त्वपूर्ण शिक्षण संस्थान था । 'दक्षिण भारत का नालन्दा' के नाम से इस विद्यापीठ की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी । नालन्दा के साथ यहाँ के अध्यापकों एवं छात्रों का गहरा सम्बन्ध था । शिल्प - शास्त्र और स्थापत्य में इसका अनन्य स्थान था । पल्लव राजाओं ने इस विद्यापीठ को खुले हाथों दान दिया । सुप्रसिद्ध नैयायिक वात्स्यायन और समर्थ पण्डित बौद्धन्यायविशारद दिङ्गनाग जैसे आचार्यों ने इसकी कीर्ति में चार चाँद लगा दिये।
इन विद्यापीठों की संस्कृति एवं अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था से आकर्षित होकर असंख्य विदेशी विद्यार्थी यहाँ अध्ययनार्थ आते थे। उसी कड़ी में चीनी
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