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मार्च - २०१३ कमलामेला कुंयरि बइठी, देखी पिता मनि चिंता पइठी, उग्रसेनसुत नभसेन चंगइं, तास प्रति दीधी मनरंगि. ८ करि कमंडल वेणा सोहि, अक्षमाला नारद मन-मोहि, रिषि आविउ नभसेन कि मंदिरि, ऊभउ रहिउ देखि निज भरि. ९ कन्या लाभइ कुंयर गहिगहितउ', नवि पेखिउ रिषि जातउ,
विहतउ ऊठी नवि तस आसन दीण, विनय न आवि घुण्यविहीण. १० भणीयं च :
विणउ आवई सिरि लहइ, विणीउ जसं च कित्तिं च, न कयावि दुब्विणीउ, सकज्जसिद्धि समाणेई. ११
। [उपदेशमाला, गाथा नं. - ३४२] को चित्ते इम पूरं गयं, च कुणइं राजहंसाण, को कुवलयाण गंधं, विणयं च कुलप्पसूयाणं*. १२
चालि।। नभसेन उपरि नारद कोपिउ, देखउ विनय पणि अधमि लोपिउ
तउ हिवि सीख देसिउं सुविचारी, देखि द्रष्टि किसिउ अहंकारी. १३ ॥श्लोक।।
ऐश्वर्यतिमिरं चक्षुः पश्यंतोऽपि न पश्यं(य?)ति। पुनर्निर्मलतां याति दारिद्रांजन भेषजात् ।।१४।। [ ] संपदि यस्य न हर्षो विपदि विषादे रणे च धीरत्वं । तं भूवनत्रयतिलकं जनयति जननी सूतं विरलं ।।१५।। [ ]
॥चालि।। सागरचंद घरि रिषि आविउ, दरिसन देखतउ कुमरनइ भाविउ, ऊभउ थइ तस आसन दीध, भलइं पधार्या ! कारिज सीध. १६ निषधपुत्र करयोडी भाखि, नारदसिउं छांनू नवि राखि, निज ईछ्याइं भमत भुपीठि, कहउ कोई वात दीठी रस-मीठि. १७ उत्तरार्धना बे पाद उपदेशपद गाथा नं.-१००५ मां मळे छे.
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