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________________ 18 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 हैं। यद्यपि ऊपर से देखने में ऐसा प्रतीत नहीं होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर सभी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। नर की अपेक्षा मादा में काम-वासना तीव्र होती है। एकेन्द्रिय वनस्पति की प्रतिनिधि मादा लतायें नर रूप वृक्ष का सहार लेती हैं अर्थात् वृक्ष से लिपट जाती हैं। यह सब अव्यक्त काम-वासना का ही प्रतीक है। काम-वासना की तीव्रता जब मूक एकेन्द्रिय जैसे प्राणियों से लेकर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों तक में भी पाई जाती है तो पञ्चेन्द्रिय स्त्री-पुरुष में पाया जाना स्वाभाविक है। क्योंकि यह पूर्ण विकसित प्राणी है। चूंकि मानव जाति एक सभ्य और प्रतिष्ठित जाति है, वह विवेकवान् है, बौद्धिक स्तर उनका अत्यन्त उन्नत है, अत: सामान्य प्राणियों से मनुष्य को पृथक् करने के लिये एक मात्र धर्म या विवेक ही ऐसा है जो उसे पशुओं से पृथक् कर देता है। धर्म दो प्रकार का है- एक सामाजिक धर्म और दूसरा आध्यात्मिक धर्म। हम चाहें तो उन्हें शास्त्रीय भाषा में व्यवहार धर्म और निश्चय धर्म भी कह सकते हैं। व्यवहार पूर्वक ही निश्चय में प्रवेश किया जा सकता है। विवाह धर्म तो है, किन्तु वह सामाजिक धर्म है। व्यवहार धर्म है और यह धर्म यदि हम चाहें तो निश्चय के मार्ग में लगाने में साधक बन सकता है। अन्यथा विवाह जैसी सामाजिक व्यवस्था भी मनुष्य को पतन के गर्त से बचा नहीं सकती है। जैन शास्त्रों में उल्लिखित जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षइन सात तत्त्वों में से अन्तिम तीन अर्थात् संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये सामाजिक व्यवस्था विवाह में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं कार्यकारी हैं। संवर तत्त्व की दृष्टि से विचार करें तो विवाह रूप सामाजिक धर्म हमें असीमित भोगों को भोगने की अपेक्षा सीमित अर्थात् एकदेश भोग भोगने में सहायक बनता है। अर्थात् विवाह वह सामाजिक बन्धन है, जो स्त्री और पुरुष दोनों को काम-भोगों के अथाह सागर से निकालकर उन्हें एक दूसरे में ही संतुष्ट रहने के लिये प्रेरित करता है। इस प्रकार हम विवाह के माध्यम से अपने काम-भोगों का एकदेश संवर करने में सफल हो सकते हैं और क्रमशः ब्रह्मचर्याणुव्रत तथा ब्रह्मचर्य महाव्रत को जीवन में धारण करके कामभोगों से लब्ध कार्यों की निर्जरा करके अन्त में मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने कन्यादान को विवाह कहा है। इसी को और स्पष्ट करते हुये आचार्य अकलङ्क देव ने लिखा है कि सातावेदनीय और चारित्रमोह के उदय से जो कन्या का वरण किया जाता है वह विवाह है। इसी का समर्थन आचार्य विद्यानन्द ने भी किया है। आचार्य सोमदेवसूरि थोड़ा सा कुछ आगे बढ़ते हुये कहते हैं कि
SR No.525094
Book TitleSramana 2015 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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