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________________ जमीकंद की ग्राह्यता-अग्रता का प्रश्न : 7 के अधिकारी नहीं बन जाते जबकि अन्य स्थलों से उनकी चैतन्य शक्ति स्पष्टत: भिन्न प्रमाणित होती है। आगमों में तो कई स्थल ऐसे भी हैं जहाँ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय तथा अन्य विकसित जीवों की वेदना भी एक सरीखी बताई गई है, उदाहरण के तौर पर प्रज्ञापना२२ के ३५वें पद में वर्णन है कि सभी एकेन्द्रियों की, विकलेन्द्रियों की तथा असंज्ञी तिर्यंच मनुष्यों की, यहाँ तक कि मिथ्यात्वी देवताओं की भी वेदना “अनिदा वेदना' होती है तो क्या इन सबकी अनिदा वेदना को समान ही माना जाएगा, कदापि नहीं। एकेन्द्रियों से विकलेन्द्रियों की वेदना तथा उससे असंज्ञी, तिर्यंच पंचेन्द्रिय की वेदना अधिक होती है किन्तु यहाँ सबके लिए एक शब्द लिखा है। इसी न्याय से सूक्ष्म से बादर की तथा साधारण से प्रत्येक की वेदना भी अधिक माननी चाहिए। इसी तरह भगवती१३ के अनुसार सभी एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी जीव 'अकाय निकरण' वेदना वेदते हैं पर उनमें अल्प-बहुत्व का वर्णन नहीं है, पर यह वर्णन न होने से यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि सबकी समान ही वेदना होती है। यदि एकेन्द्रिय से विकलेन्द्रिय की वेदना ज्यादा है तो इसी प्रमाण से साधारण से प्रत्येक की वेदना भी ज्यादा है। प्रज्ञापना के ८वें पद में संज्ञाओं का उल्लेख करते हए कहा गया है कि - चौबीस दण्डकों में चारों संज्ञाएं होती हैं पर तिर्यंचों में आहार संज्ञा कुछ अधिक होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या एकेन्द्रियों से विकलेन्द्रियों की और विकलेन्द्रियों से पंचेन्द्रिय जीवों में समान ही आहार संज्ञा होती है, उत्तर यही होगा कि इनमें काफी अन्तर होता है। जिसमें जितना उपयोग, शारीरिक सामर्थ्य कम होती है, उसकी संज्ञा कम, जिसका जितना उपयोग, शरीर-सामर्थ्य अधिक होती है, उसकी आहार संज्ञा भी अधिक होती है। साधारण और प्रत्येक के सम्बन्ध में भी यही जानना चाहिए। जैन चिन्तकों में यह भी धारणा है कि एकेन्द्रिय जीवों को (प्रत्येक साधारण सहित सभी को) मनुष्य जैसे विकसित और संवेदनशील प्राणी के बराबर ही पीड़ा का अनुभव होता है और इसके लिए वे आचारांग तथा भगवतीसूत्र के कुछ पाठों का उदाहरण देते हैं, इस विषय की समुचित समीक्षा भी जरूरी है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में पाठ का अर्थ जैसा प्रचलित है वैसा अर्थ मूल पाठ से कथमपि ध्वनित नहीं होता। प्रस्तुत पाठ में लिखा है- अप्पेगे अंधमब्भे अप्पेगे अंधमच्छे, फिर पाद, गल्फ, जंघा, जानु, उरु, कटि, नाभि, पार्श्व, उदर, पीठ, छाती का वर्णन करते-करते मस्तक सिर के छेदन-भेदन का वर्णन है, यहाँ कहीं नहीं लिखा है कि पृथ्वीकाय आदि की वेदना अंधे-बहरे-गूंगे के समान होती है। यहाँ तो सर्वप्रथम 'अंध' शब्द के द्वारा पैरों के अधोभाग पर छेदन-भेदन लिखा
SR No.525094
Book TitleSramana 2015 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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