SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 पालकों से आहार लेने में "गुरू चौमासी" दण्ड लिखा है। निशीथ के ९वें उद्देशक में लिखा है कि राजा की सवारी देखने के लिए एक कदम भी बढ़ाए तो “गुरू चौमासी'६ और चित्रशालाएं, झरने, वन सौन्दर्य, गाँव के मेले, ग्रामवध, ग्रामदाह, अश्व आदि के युद्ध, नाटक, नृत्य, महायुद्ध देखने के लिए कहीं जाए तो "लघु चौमासी'' का दण्ड आता है, तो क्या एक में पाप ज्यादा और इन सबमें पाप कम लगता है, जो दण्ड भिन्नता की गई है। छेद सूत्र में वर्णन आया है कि सुई को अविधि से लौटाए तो “गुरू चौमासी' का दण्ड है तो क्या हम कल्पना करलें कि दोष की गम्भीरता पहले में ज्यादा है और दूसरे में कम है? कृत्स्न (सम्पूर्ण) सचित्त आम की फाँक खाने का दण्ड “लघु चौमासी' है। ऐसे ही अन्य स्थान पर वर्णन है कि पनग आदि पर शौच जाने का दण्ड “लघु मासी' और सूने घर में शौच जाने पर "लघु चौमासी" का दण्ड आता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जो आचार्यों ने दण्ड के विषय में दिए हैं पर वे किसी भी घटना के लिए शत-प्रतिशत दोष की गंभीरता की न्यूनाधिकता का प्रमाण नहीं बन सकते और फिर निशीथ सूत्र में ही पिप्पली, अदरक को पिछले दिन का लेने का दण्ड निषेध किया है, तत्कालीन का नहीं। निशीथ सूत्र के ही ११वें उद्देशक में वर्णन है कि आधे योजन से दूर से पात्र लाएं तो “गुरू चौमासी" का दण्ड और १२वें उद्देशक में कहा है कि आधे योजन से दूर से आहार लावें तो "लघु चौमासी" का दण्ड। इससे क्या सिद्ध होता है? निशीथ के ही १४वें उद्देशक में स्पष्ट पाठ है कि पात्र से पृथ्वीकाय, जलकाय, कंदमूल, पत्र, पुष्पादि निकाल कर लें तो समान दण्ड है, कम-ज्यादा नहीं। क्या इस प्रक्रिया में कंदमूल की ज्यादा विराधना नहीं होती? इसी में १२वें उद्देशक११ में पाँच स्थावरकायों की विराधना का एक ही दण्ड लिखा है। वहाँ वनस्पति का विभाजन नहीं लिखा कि साधारण की विराधना में ज्यादा और प्रत्येक की विराधना में कम दण्ड। ऐसे ही निशीथ सूत्र में वर्णन है कि सचित्त स्थान पर जहाँ अण्डे, बीज, हरियाली, काई है वहाँ शौच जाएं तो “लघु मासी' और वस्त्र-पात्र सुखा दें तो "लघु चौमासी' का दण्ड। तो क्या प्रथम क्रिया में दूसरी क्रिया से कम हिंसा है? कहने का अभिप्राय यह है कि छेद सूत्र इस बात के निर्णायक नहीं हो सकते कि साधारण वनस्पति की हिंसा प्रत्येक से ज्यादा है, केवल एक ही जगह पर 'अनन्तकाय संजुत्त' के पाठ को हम निर्णायक नहीं मान सकते जबकि इसके विरोधी पाठ कंदम-कदम पर मिल रहे हैं; इसीलिए इस पाठ को हम 'विचित्रा सूत्राणां गतिः' कहकर ही समझें तो बेहतर है। कुछ विद्वानों का मन्तव्य है कि आगमों में साधारण और प्रत्येक वनस्पति जीवों की वेदना में अन्तर नहीं बताया गया अपितु वनस्पति मात्र की वेदना को एक ही श्रेणी में रखा है परन्तु दोनों को एक ही शीर्षक के अन्तर्गत लाने से वे पूर्णत: समान चेतना
SR No.525094
Book TitleSramana 2015 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy