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जमीकंद की ग्राह्यता-अग्रह्मता का प्रश्न : 3 उनके. यंत्रों में झलक नहीं सकती क्योंकि वहां पर चेतना का इतना अल्प विकास होता है कि उन्हें निर्जीव तो नहीं पर निर्जीवप्राय ही कहा जा सकता है। एक हरा पत्ता पर्यावरण के लिए जितना उपयोगी है उतने जमीकंद के सैकड़ों फल आदि भी नहीं। एक व्यक्ति यदि अपने भोजन के लिए प्रत्येक वनस्पति के दो-चार पत्तों को खाता है तो उसने पर्यावरण को ज्यादा हानि पहुंचाई है जबकि जमीकंद आदि के प्रयोग से पर्यावरण को विशेष क्षति नहीं पहंचती क्योंकि आक्सीजन विसर्जन हरे पौधे और पत्तों से होता है। पौधों से जो आक्सीजन पर्यावरण को मिलती है उससे लाखों अन्य प्राणी जीवित रहते हैं। प्रत्येक वनस्पति के उपजीव्य जीव ज्यादा हैं और साधारण के बहुत कम इसीलिए प्रत्येक वनस्पति की हिंसा में अन्य त्रस जीवों की अधिक हिंसा छिपी रहती है। अनन्त कायिक (साधारण वनस्पति) के अधिक प्रचलित खाद्य पदार्थ आलू के उत्पादन में पानी का अन्य सभी खाद्यान्नों, फलों की तुलना में अल्पतम खर्चा होता है, अर्थात् इसके उपयोग में पानी के जीवों की पारम्परिक (इनडाइरेक्ट) हिंसा सबसे कम है। यह एक अन्य पहलू है कि मानव शरीर के लिए प्रत्येक वनस्पति में अधिक पोषक तत्त्व हैं, साधारण वनस्पति में कम। साधारण वनस्पति में सूर्य आदि के सम्पर्क का अभाव होने से फोटो सिंथेसिस आदि की प्रक्रिया नहीं होती। विटामिन-प्रोटीन आदि कम उत्पन्न होते हैं। इसीलिए डॉक्टर भी सामान्य जनता को प्रत्येक वनस्पति के फल अधिक बताते हैं और आल आदि जमीकंद कम, पर अर्थशास्त्र की दृष्टि से भी जमीकंद वाली सब्जियां अधिक सस्ती होती हैं और प्रत्येक वनस्पति वाली महंगी। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर प्रत्येक वनस्पति साधारण से ज्यादा उपयोगी और अनन्त पुण्याधिक सिद्ध होती है लेकिन फिर भी यहाँ मुख्य प्रसंग अहिंसा की न्यूनाधिकता का है न कि शारीरिक लाभ-हानि या मूल्यों की कमी-बेशी का। यह तथ्य विचारणीय है कि भगवान महावीर स्वामी ने श्रावक के लिए १५ कर्मादानों का निषेध किया है जिनमें वन-कर्म एक मुख्य कर्मादान है। विश्व के सभी जंगल काट दिए जाएं, सारा अन्न खा लिया जाए, सम्पूर्ण पहाड़ और भूमियां खोद दी जाएं तो भी आलू के सूई जितने भाग के खाने से जितने जीव मरेंगे उतने पूर्वोक्त क्रियाओं में नहीं मरेंगे। तो क्या कोई प्ररूपणा कर सकता है कि १५ कर्मादानों में इतना पाप नहीं है जितना जमीकंद खाने में? यदि वीतराग देवों को ऐसा सिद्धान्त अभीष्ट होता तो सर्वप्रथम यही नियम बनाते कि साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप धर्म को वही व्यक्ति स्वीकार करे जो जीवन-पर्यन्त जमीकंद का स्पर्श भी न करे। .