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________________ 2 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 वनस्पति के असंख्य-अनन्त जीवों का वध कर देते हैं। आज-कल भी कुछ मांसाहारी यही तर्क देते हैं कि जीव तो फलों में भी होता है, फिर शाकाहारी हमसे किस तरह अधिक अहिंसक और करुणाशील हो सकते हैं। श्वेताम्बरों द्वारा मान्य किसी भी आगम में साधु या श्रावक के लिए ऐसा उल्लेख नहीं है कि वह साधारण वनस्पति का अचित्त रूप में भी सेवन न करे। जहां भी निषेध है वहां सचित्त का है और उसमें प्रत्येक और साधारण दोनों प्रकार की वनस्पतियां परिगणित की गई हैं। दशवैकालिक सूत्र का पाठ है- 'कंदं मूलं पलम्बं वा आमं छिन्नं च सन्निरं। तुंबागं सिंगबेरं च आगमं परिवज्जए।' अहिंसा-व्रती साधु कंद, मूल, केला, घीया, अदरक सचित्त हो तो ग्रहण न करें। भगवती में जमाली के माता-पिता मुनिचर्या की कठिनता के प्रसंग में कहते हैं कि साधु कन्द, मूल, बीज, हरित-फल का आहार नहीं लेते। आइये जरा, साधारण वनस्पति और प्रत्येक वनस्पति की संवेदना के विषय को लें, क्योंकि संवेदनशीलता ही जैन धर्मानुसार अहिंसा और हिंसा का मूल आधार मानी गई है। यदि एक पानी के पात्र में मक्खी या कीड़ी पड़ी है तो धार्मिक, दयावान व्यक्ति असंख्य जीवों की तुलना में एक मक्खी या कीड़ी बचाना चाहेगा क्योंकि एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीव की शारीरिक विकास शक्ति, चेतना, सामर्थ्य एवं संवेदना अधिक से अधिकतर होती है। उसी तरह साधारण वनस्पति की अपेक्षा प्रत्येक वनस्पति के जीवों की चेतना एवं संवेदना बहुत अधिक होती है। साधारण वनस्पति के अनन्त जीवों के पुण्य से प्रत्येक वनस्पति के एक जीव का पुण्य ही अनन्तगुणा होता है। देवगति के जीव काल करके साधारण वनस्पति में पैदा नहीं हो सकते। वे प्रत्येक में ही पैदा होते हैं। अपर्याप्त अवस्था में तेजोलेश्या की संभावना प्रत्येक में है, साधारण में नहीं। कर्मग्रन्थों के अनुसार वनस्पति में जो दूसरा गुणस्थान माना गया है वह भी प्रत्येक को ध्यान में रखकर न कि साधारण वनस्पति को। आगम और कर्मग्रंथों का विश्लेषणपरक अध्ययन करने वालों का निष्कर्ष है कि साधारण और प्रत्येक वनस्पति में मात्रात्मक ही नहीं गुणात्मक अन्तर भी है, क्योंकि साधारण नामकर्म को पापप्रकृतियों में तथा प्रत्येक नामकर्म को पुण्य-प्रकृतियों में परिगणित किया गया है। त्रस जीवों की तुलना में स्थावर जीव, बादर की अपेक्षा सूक्ष्म जीव, पर्याप्त जीवों के समक्ष अपर्याप्त जीव जिस तरह मौलिक रूप से भिन्न हैं उसी प्रकार प्रत्येक की तुलना में साधारण जीव भी मौलिक रूप से भिन्न हैं। उनमें पुण्य का अल्प-बहुत्व न मानकर पुण्य-पाप का अन्तर माना गया है। वैज्ञानिकों ने वनस्पति में जीवन माना है और उनके प्रमाण अधिकांश जैन उद्धृत करते हैं। उन्होंने भी सारे प्रयोग प्रत्येक वनस्पति पर किए हैं। साधारण वनस्पति की संवेदना
SR No.525094
Book TitleSramana 2015 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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