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________________ जमीकंद की ग्राह्यता-अग्राह्यता का प्रश्न आगमज्ञानरलाकर श्री जयमुनिजी अग्राह्यता की समीक्षा जैन समाज में त्याग का विशेष महत्त्व रहा है। वस्तु का त्याग, कषाय का त्याग, शरीर का त्याग, हिंसादि १८ पापों का त्याग-ये सब त्याग आत्म-शद्धि के हेत हैं। वस्तु विशेष के त्याग के पीछे जहाँ आसक्ति घटाने की भावना रहती है वहीं त्यज्यमान वस्तु से सम्बन्धित हिंसा को घटाने की भावना भी रहती है। सचित्त वनस्पति के त्याग की परम्परा जैन-समाज के श्रावकों में काफी प्राचीन और आदरणीय रही है। जैनमुनि किसी एकेन्द्रिय सचित्त वस्तु को लेना तो दूर, छूते भी नहीं हैं। श्रावक भी भावना रखते हैं कि हम भी सचित्त वनस्पति का सेवन न करें या कम से कम करें। साधु-समाज में समय-समय पर इस विषय में विवाद रहा है कि कौन सा फल कब तक सचित्त रहता है और वह कब अचित्त बनता है। केला, सेब, बादाम, अंगूर आदि खूब चर्चित रहे हैं और अब भी हैं। नमक-मिर्च डालने से अचित्त मानना, आग पर रखने के बाद, अच्छी तरह पक जाने के बाद, टेढ़ा चीरने पर, गर्म पानी में से निकालने पर सचित्त होना और न होना आदि विषय अपने-अपने ढंग से निर्णीत हुए हैं परन्तु अखिल भारतीय स्तर पर इनका समाधान नहीं हुआ। इस कड़ी में एक अहम मुद्दा जमीकंद का भी उभरा है। उसको भक्ष्य अथवा अभक्ष्य मानने की कई धारणाएं जैन-समाज में प्रचलित हैं- जो जमीकंद का त्याग करते हैं या करवाते हैं वे जमीकंद में अनन्त जीवों की हिंसा से बचने की भावना से युक्त होते हैं। उनकी यह भावना होती है कि हम सर्व वनस्पति को खाने से नहीं बच सकते तो अनन्त-काय से तो बच ही जाएं ताकि हमें अधिक पाप का भागी न बनना पड़े। जैनों के सभी सम्प्रदायों में आलू, मूली, प्याज आदि के त्याग की धारणा है। गुजरात में तो आलू-भक्षण को अण्डा-भक्षण तक से उपमित कर दिया जाता है पर क्या वह अतिवादी चिंतन सचमुच ही आगमिक, अहिंसा-वर्धक और जैनत्व का मूल अंग है? चिंतन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि संख्याओं के गणित ने सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दिया है। न अहिंसा की मूल भावना को स्पर्श किया, न आगमों की प्रामाणिकता रखी और न ही प्रायोगिक धरातल पर जी पाये। इनको प्राचीन और अर्वाचीन दो कुतर्कों से समझते चलें। प्राचीन युग में हस्ति तापसों का एक दल होता था जिनका तर्क था कि हम एक हाथी को मारकर कई महीनों तक खाते हैं जबकि शाकाहारी मनुष्य एक दिन में
SR No.525094
Book TitleSramana 2015 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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