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________________ 4 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के आठवें उद्देशक में अशस्त्र परिणत वस्तुओं की सूची दी गई है जो ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। जिसमें शालूक, विरालिका, सर्षप नालिका, पिप्पली, मिर्च, अदरक, आम-प्रलम्ब, आम्रातक, ताल सुरभि आदि के प्रलम्ब तथा अश्वत्थ न्यग्रोध सल्लकी के प्रवाल, कुछ सरटू (कपित्थका, दाडिमका बिल्वका) तथा कुछ मंथू का वर्णन है, ये अप्रासक सचित्त हों तो न लें, ये प्रासुकाएषणीय हों तो ग्राह्य हैं। इनमें शालूक (कमलकंद) व अदरक का उल्लेख स्पष्टत: अनन्तकायिक प्रयोग निषेध का खण्डन करता है। उससे अगले पाठों में सिंघाड़े का, भिस का, भिस मृणाल का तदन्तर अग्रबीज और मूल-बीजों का मूल जातों का तथा लशुन-पत्र, लशुनकंद लशुन-चोयक का वर्णन है। ये सब. पाठ अचित्त अनन्तकाय की ग्राह्यता की ओर संकेत करते हैं। सातवें अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में मुनि के लिए कहा है कि आम्र, इक्षु तथा लहशुन के अंश यदि सचित्त अप्रासुक हों तो न लें तथा अचित्त प्रासुक हों तो ले सकते हैं। पाठ निम्नांकित है “से भिक्ख वा से जं पुण जाणेज्जा........... ल्हसुन वा ल्हसुणकदं वा ल्हसुण चोयगं वा ल्हसुण णालगं वा तिरिच्छ छिण्णं वोच्छिण्णं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा।" किसी-किसी सम्प्रदाय में जमीकंद के त्यागी और अत्यागी दोनों तरह के साधु-साध्वी होते हैं। जो त्यागी हैं उनका त्याग संतोष और तप की दृष्टि से तो उच्चतर माना जा सकता है पर अहिंसा की दृष्टि से दोनों मुनियों के त्याग में कुछ अन्तर पड़ता हो, ऐसा नहीं लगता क्योंकि दोनों मुनि नवकोटि शुद्ध अचित्त आहार लाए हैं। ऐसा तो नहीं माना जा सकता कि साधारण वनस्पति का अचित्त भोजन करने वाला मुनि गृहस्थ कृत हिंसा का अधिक उत्तरदायी है, प्रत्येक वनस्पति का आहार करने वाला कम। रही बात अनन्तकायिक पदार्थों के त्याग करने वाले साधु या श्रावकों की तो वह भी विचित्र-सी स्थिति है क्योंकि पूर्णतः अनन्त-कायिक वनस्पति का त्यागी कोई नहीं है। प्रत्येक वनस्पति में जहां-जहां अवान्तर शाखा का उद्गम होता है वहां-वहां स्थल अनन्त-कायिक होता है- उग्गममाणे अणंते- ऐसा आगम पाठ है। उदाहरण के तौर पर सरसों का साग लें- उसमें स्थल-स्थल पर नया अंकुरण है और वह स्थल अनन्त जीवों का उत्पत्ति स्थान है, भीगे हुए बादाम में, चने, गेहूं, मूंग की तरह अंकुरण होता है और भीगे हुए बादाम को पीसकर दूध आदि में प्राय: अनन्तकाय के त्यागी लेते हैं। फिर जमीकंद के त्यागी,हल्दी और अदरक का आगार रखते हैं। जब अनन्तानन्त जीवों को खा ही रहे हैं तो एक-दो पर जोर देना विसंगति का सूचक है। पाप है तो इन दो की भी छूट क्यों रखी जाए? कई स्थानों पर त्याग हास्यास्पद स्थिति में पहुंच जाता है- जैसे आलू के त्यागी आलू के चिप्स या पुरानी आलू की भंगोड़ी खाते हैं,
SR No.525094
Book TitleSramana 2015 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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